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अच्छी खबर नहीं सिपरी की रिपोर्ट में

शबनम सुरिता
१५ जून २०१५

दुनिया में परमाणु हथियारों की संख्या भले घट रही हो, परमाणु सत्ताएं अपने परमाणु हथियारों को लगातार अपग्रेड कर रही हैं. ग्रैहम लूकस का कहना है कि स्टॉकहोम शांति शोध संस्थान सिपरी की रिपोर्ट अच्छा संकेत नहीं देती.

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पहली नजर में यह खबर अच्छी लगती है कि दुनिया भर में परमाणु शीर्षमुखों की तादाद गिर रही है. 2010 से उनकी संख्या 22,600 से घटकर 15,850 रह हई है. लेकिन यह सोचना गंभीर भूल होगी कि मानवजाति भूल सुधार रही है और अपना धन सही चीजों पर खर्च कर रही है. दरअसल यह आंकड़ें दिखाते हैं कि परमाणु सत्ताओं ने शीत युद्ध के बाद समझ लिया है कि परमाणु हथियारों में अंधाधुंध निवेश करने का अब कोई मतलब नहीं है. इसलिए नहीं कि वे एक दूसरे को धमकाने की जरूरत नहीं महसूस करते. ये तो वे लगातार कर रहे हैं. कुछ महीने पहले रूस के राष्ट्रपति व्लादीमिर पुतिन ने कहा कि उन्होंने यूक्रेन संकट के कारण परमाणु टुकड़ियों को अलर्ट रहने के आदेश दिए हैं. पिछले दिनों पाकिस्तान ने भारत पर धमकी वाली टिप्पणियां करते हुए संकेत दिया कि वह परमाणु हथियारों का इस्तेमाल करने के लिए तैयार है.

संख्या में कमी की वजह मुख्य रूप से अमेरिका और रूस द्वारा अपने हथियारों का आधुनिकीकरण की जरूरत है, जिनके पास हथियारों का सबसे बड़ा जखीरा है. इससे पैसा बचता है. इस बात के कोई संकेत नहीं हैं कि ये दो देश निकट भविष्य में अपना हथियार पूरी तरह खत्म करने को तैयार हैं. ब्रिटेन भी नहीं, जो इस समय अमेरिका से ट्राइडेंट परमाणु हथियार सिस्टम खरीद कर अपनी नई परमाणु नीति पर जोर दे रहा है. यही फ्रांस पर भी लागू होता है. पिछले दिनों दक्षिण चीन सागर में तनाव बढ़ाते चीन ने तो अपने हथियार बढ़ा लिए हैं. भारत, पाकिस्तान और इस्राएल के पास करीब 100-100 परमाणु हथियार हैं. ये हथियार लाखों लोगों को मारने के लिए काफी हैं. उसके बाद उत्तरी कोरिया भी है.

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ग्रैहम लूकस का कहना है कि स्टॉकहोम शांति शोध संस्थान सिपरी की रिपोर्ट अच्छा संकेत नहीं देती.

ये सब दरअसल बेकार है. परमाणु हथियारों का इस्तेमाल अविश्वसनीय बर्बादी पैदा करेगा और मानवता के अस्तित्व को खतरे में डालेगा. सिर्फ कोई पागल ही इसे नजरअंदाज कर सकता है. इसके अलावा यह तथ्य भी है कि अमेरिका और रूस के बीच शीत युद्ध खत्म होने के पहले ही आधुनिक युद्ध का चरित्र बदलने लगा था. युद्ध अब बढ़ते पैमाने पर राष्ट्रीय सेनाओं के बीच नहीं बल्कि विद्रोहियों और नियमित सेनाओं के बीच लड़े जा रहे हैं. अमेरिकियों ने वियतनाम, अफगानिस्तान और इराक में यह अनुभव किया है, रूस ने अफगानिस्तान में अपनी विफलता देखी है और भारत पूरब में माओवादी छापामारों से तो कश्मीर में इस्लामी विद्रोहियों से लड़ रहा है. इस्लामी कट्टरपंथी तालिबान पाकिस्तान और अफगानिस्तान में सेना से लड़ रहा है तो इस्लामी स्टेट के लड़ाके उत्तर अफ्रीका, मध्यपूर्व और एशिया के कई देशों में गैर मुस्लिमों के नरसंहार की धमकी दे रहे हैं.

बड़ी और मध्य स्तर की सत्ताएं स्थानीय लोगों से समर्थन पाने वाले विद्रोहियों के खिलाफ परमाणु धमकी देकर लड़ाइयां नहीं जीत सकतीं. इसलिए परंपरागत हथियारों पर खर्च बढ़ रहा है. न सिर्फ चीन, रूस और सऊदी अरब ने परंपरागत हथियारों पर किया जाने वाला खर्च हाल में बढ़ा दिया है बल्कि रूस की सीमा पर स्थित देश भी सुरक्षा के डर से खर्च बढ़ा रहे हैं. अफ्रीका में भी खर्च बढ़ रहा है जो बिगड़ती सुरक्षा को दिखाता है.

लेकिन हथियारों पर होने वाले खर्च में वृद्धि के पीछे भ्रष्टाचार, निहित स्वार्थ और तानाशाहियां भी हैं. अमेरिका और पश्चिमी देश अभी भी सोचते हैं कि वे रूस के खतरे को नजरअंदाज कर सकते हैं, इसलिए कम खर्च कर रहे हैं. उनके लिए बैंक संकट से पैदा हुए आर्थिक संकट से निकलना प्राथमिकता है.

नहीं, दुनिया बेहतर जगह नहीं बन रही है. सिर्फ जिस तरह से लोग एक दूसरे को धमका रहे हैं और जान ले रहे हैं, वह बदल गया है.