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समाज

अपनी शान खो रहा है शजर पत्थर

फैसल फरीद
६ नवम्बर २०१७

अंग्रेज भारत से अपने साथ सिर्फ एक कोहिनूर हीरा ही नहीं ले गये, बल्कि भारत का एक पत्थर ब्रिटेन की क्वीन विक्टोरिया को इतना पसंद आया कि वो उसे भी अपने साथ लंदन लेकर गयीं.

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Shajar Steine
तस्वीर: DW/F. Fareed

उत्तर प्रदेश के बांदा जिले में पाए जाने वाले शजर पत्थर पर कुदरत खुद चित्रकारी करती हैं और कोई भी दो शजर पत्थर एक से नहीं होते. ये पत्थर आज भी अपनी खूबसूरती के लिए मशहूर हैं. भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी से शासन जब ब्रिटेन की महारानी को दिया गया तो एक नुमाइश दिल्ली दरबार में हुई. वहां क्वीन विक्टोरिया को ये शजर पत्थर भा गया और वो इसे अपने साथ ले गयी थी.

आज दुनिया भर में शजर पत्थर मशहूर हैं. उत्तर प्रदेश में आज भी शजर पत्थर बांदा में सिर्फ केन नदी की तलहटी में पाया जाता है. ये पत्थर आभूषणों, कलाकृति जैसे ताज महल, सजावटी सामान और कुछ अन्य वस्तुएं जैसे वाल हैंगिंग में लगाने के काम में प्रयोग होता हैं. कुछ लोग इसको बीमारी में फायदा पहुचाने वाला पत्थर भी मानते हैं.

इस पत्थर की कहानी भी दिलचस्प है. केन नदी में ये हमेशा से मौजूद था. लेकिन कहते हैं इसकी पहचान लगभग 400 साल पहले अरब से आये लोगो ने की थी. वो इसको देख कर दंग रह गए. शजर पत्थर पर कुदरती रूप से उकेरी हुई पेड़, पत्ती की आकृति के कारण इसका नाम उन्होंने शजर दिया जिसका मतलब पर्शियन में पेड़ होता हैं. उसके बाद मुगलों के राज में शजर की पूछ बढ़ गयी. एक से एक कारीगर हुए जिन्होंने बेजोड़ कलाकृतियां बनायीं.

Shajar Steine
तस्वीर: DW/F. Fareed

स्थानीय लोगों की मानें तो शजर पत्थर पर ये आकृतियां तब उभरती हैं जब शरद पूर्णिमा की चांदनी रात को किरण उस पत्थर पर पड़ती हैं. उस समय जो भी चीज बीच में आती हैं उसकी आकृति उस पर उभर आती है. हालांकि विज्ञान के अनुसार शजर पत्थर डेन्ड्रिटिक एगेट पत्थर है और ये कुदरती आकृति जो इस पर अंकित होती है वो दरअसल फंगस ग्रोथ होती हैं.

शजर पत्थर का महत्त्व मुसलमानों में बहुत हैं. वो इसे हकीक भी कहते हैं. इस पत्थर पर वो कुरान की आयते लिखवाते हैं और ये काफी सम्मानजनक स्थान रखता हैं. आज भी मक्का हज के लिए जाने पर वो इस पत्थर को ले कर जाते है. धीरे धीरे बांदा शजर पत्थर का केंद्र बन गया. सैकड़ो कारखाने खुल गए और तमाम लोग इसमें रोज़गार पा गए.

बांदा से ये पत्थर आज भी पूरे विश्व में और ज्यादातर खाड़ी देशों में जाता हैं. इसकी मांग ईरान में बहुत ज्यादा हैं और उसी की वजह से बंदी की कगार पर पहुच चुके शजर को दुबारा बाजार मिल गया है.

Shajar Steine
तस्वीर: DW/F. Fareed

कभी इस पत्थर को निकालने के लिए कारीगर बरसात में केन नदी के किनारे कैंप लगाते थे. नदी से पत्थर को पहले निकालना फिर उसको तराशना और फिर उसको मनचाही रूप में ढालना ये सब छोटे छोटे कारखानों में होता था. पीढियों से ये हुनर चला आ रहा था. राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त हस्तशिल्पी द्वारका प्रसाद सोनी के अनुसार पहले पत्थर की कटाई और घिसाई होती हैं. उसके बाद इसको मनचाहे आकर में ढाल दिया जाता है. फिर पॉलिश कर के चमक लायी जाती हैं. शजर को नया रूप देने में अभी भी कोई बहुत विकास नयी हुआ हैं. काम हाथ से और मात्र एक घिसाई मशीन से होता है. ऐसे यूनिट्स को बांदा में कारखाना कहते हैं. तैयार शजर पत्थर को क्वालिटी के हिसाब से 1,2,3ग्रेड में रखा जाता है और फिर उसकी कीमत लगायी जाती हैं. कीमत सोने चांदी में जड़ने के बाद और बढ़ जाती हैं.

लेकिन आज अपने ही घर बांदा में शजर पत्थर बेघर सा हो गया हैं. कद्रदान बहुत हैं लेकिन सीधे बेचने का कोई तरीका नहीं हैं इसीलिए मुनाफा घटता गया और लोग ये काम छोड़ते गए. द्वारका प्रसाद सोनी जो बांदा में आज भी शजर पत्थर को तराशने का काम करते हैं बताते हैं कि ज्यादा मुनाफा तो बिचौलिए ले जाते हैं. यहां से सौ रुपये की चीज वो विदेशी मार्किट में सौ डालर में बेचते हैं. कुछ साल पहले तक बांदा में 34 ऐसे कारखाने थे जहां शजर पत्थर को तराशा जाता था, लेकिन अब कुल चार बचे हैं. सोनी बताते हैं की जब मार्केट ही नहीं है तो अच्छा दाम कैसे मिले. कारीगर धीरे धीरे काम छोड़ रहे हैं. खुद सोनी को कई पुरस्कार राज्य और केंद्र सरकार से मिल चुके हैं और वो विदेशो में भी भारत का प्रतिनिधित्व कर चुके हैं, लेकिन उनकी नजर में भी जब तक माल बेचने की व्यवस्था नहीं ठीक होगी, शजर जैसे बेशकीमती पत्थर को संवारने वालो का हाल नहीं सुधरेगा. सोनी के घर की दीवारों पर पुरस्कार टंगे हैं लेकिन शजर पत्थर की तरह उसके व्यवसायी गुम होते जा रहे हैं.