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अपनी ही निरीह परछाई बन गई कांग्रेस

शिवप्रसाद जोशी२१ मार्च २०१६

भारत के राज्यों में कांग्रेस की सरकारें लगातार घट रही हैं और जो हैं भी, वहां असंतोष और कलह और टूट का बोलबाला है. शिवप्रसाद जोशी का कहना है कि एक राष्ट्रीय पार्टी के लिए ये एक दुर्घटना की तरह है.

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Indien feiert Tag der Republik mit Francois Hollande
तस्वीर: picture alliance / M. Swarup

ये सिर्फ कांग्रेस की बात नहीं. देश के सर्वागीण हित में ये ठीक नहीं कि नई राष्ट्रीय पार्टियां बने नहीं और मौजूदा राष्ट्रीय राजनीतिक दल सिकुड़ते चले जाएं. ये लोकतंत्र के लिए एक बड़े खतरे की पास आती आहटें हैं. भारत के राजनैतिक इतिहास में कांग्रेस ही एक ऐसा दल है जिसने सबसे लंबे समय तक देश की सत्ता संभाली है. 1947 से लेकर 1967 तक इस पार्टी का ही बोलबाला था लेकिन साठ का दशक खत्म होते होते इसकी चमक फीकी पड़ने लगी और एक दशक बाद कांग्रेस पहली बार सत्ता से बेदखल की जा सकी. भले ही ये अवधि कम समय की थी.

हार का दूसरा स्वाद इसके बाद पार्टी ने 1989 में चखा. अपने दम पर सत्ता में आने वाली कांग्रेस 1991 से 1996 तक सत्ता में तो रही लेकिन गठबंधन सरकार की अगुवाई करती हुई. ये गठबंधन सरकारों के दौर की शुरुआत थी. 2001 में कांग्रेस को फिर मुंह की खानी पड़ी. इसके बाद 2004 से 2009 और 2009 से 2014 तक केंद्र में कांग्रेस की अगुवाई वाली लगातार दो सरकारें आईं. 2014 तो भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के लिए अस्तित्व पर मंडराता सघन सवाल ले आया. लोकसभा में उसका प्रदर्शन बेहद शर्मनाक रहा.

संघीय ढांचे वाले भारत के 29 राज्यों में भी कांग्रेस का जनाधार खिसकता जा रहा था. पिछले पांच साल में कांग्रेस के हाथों से दिल्ली ही नहीं निकली, राजस्थान, आंध्रप्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान और हरियाणा भी निकल गए. कर्नाटक देश का अकेला ऐसा बड़ा राज्य रह गया है जहां कांग्रेस की अपने बलबूते पर सरकार है. कुछ अन्य राज्यों में ये गठबंधन सरकार में शामिल हैं और कुछ पूर्वोत्तर राज्यों में इसकी सरकार है. उनमें से भी मणिपुर और अरुणाचल प्रदेश में कांग्रेस में भीषण बगावत देखी जा रही है. कुछ छोटे राज्य उसके पास हैं जैसे हिमाचल और उत्तराखंड. उत्तराखंड में इन दिनों बड़ा राजनैतिक तमाशा बना हुआ है और कांग्रेस की हरीश रावत सरकार से पुराने कांग्रेसी विधायकों ने बगावत कर रखी है और सरकार पर संकट बना हुआ है. ऐसा लग रहा है मानो ये 131 साल पुरानी पार्टी अब अपनी पहचान, प्रतिष्ठा और प्रासंगिकता तीनों खोती जा रही है.

Indien - Sonia Gandhi und Rahul Gandhi
कांग्रेस की कमजोरी का सबसे ताजा उदाहरण उत्तराखंड बताया जा रहा है.तस्वीर: picture-alliance/dpa

जो ठहराव बड़े पैमाने पर इन राज्यों के कांग्रेस संगठनों में आ गया था, उसे तोड़ने के लिए कांग्रेस की सेंट्रल लीडरशिप कुछ नहीं कर पा रही है. वो मानो एक नींद में चली गई है. कांग्रेस का ये आलस्य वामपंथी दलों के आलस्य से भी विराट है. सोनिया गांधी और राहुल गांधी की अगुवाई में कांग्रेस की कमजोरी का सबसे ताजा उदाहरण उत्तराखंड है जहां सियासी घमासान मचा है और पार्टी नेतृत्व को इसकी कोई परवाह नहीं है. न कोई भनक लगी न कोई एक्शन प्लान. पार्टी टूट रही है और पार्टी के उपाध्यक्ष महज मोदी की आलोचना का ट्वीट कर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं. कोई आक्रामकता ही नजर नहीं आती.

कांग्रेस में परिवारवाद का आरोप यूं ही नहीं लगता है. क्यों नहीं इतने दशकों पुरानी पार्टी में कोई नेता गांधी परिवार से इतर ऐसा खड़ा किया गया जो कांग्रेस को दिशा दे पाता. आखिर ये कांग्रेस के उन वरिष्ठ नेताओं की भी कमजोरी है जो गांधी परिवार में ही अपना राजनैतिक भविष्य देखते रहे हैं. कांग्रेस के भीतर अंतर्विरोध और भीतरघात भी एक पुरानी समस्या रही है. इंदिरा गांधी ने कांग्रेस को दो फाड़ कर इसकी शुरुआत कर दी थी. आज उनके नाम की कांग्रेस, अपना राष्ट्रीय चेहरा गंवाती जा रही है. और जिस तरह से राज्यों में उसका पतन हो रहा है और केंद्र का दखल बढ़ रहा है, दरअसल ये बीज कांग्रेस के ही डाले हुए हैं. वो भी राज्य सरकारों को अस्थिर करने के लिए कुख्यात रह चुकी है. अब बीजेपी भी उसके नक्शेकदम पर ही चल रही है.

ये चिंता की बात सिर्फ कांग्रेस के नेताओं या उसके प्रशंसकों के लिए ही नहीं है. बड़े फलक पर गौर करें तो ये संप्रभु, संघीय, और लोकतांत्रिक देश में एक बड़ी राष्ट्रीय पार्टी का ये क्षय आने वाले समय के लिए खतरे की घंटी भी है. ये एक ही पार्टी के वर्चस्व और प्रभुत्व की ओर जाने वाली फिसलन है. ये उस भयावहता की ओर ही अंततः ले जाएगी जिसकी आशंका इधर काफी सघन होती जा रही है. भारत को कांग्रेस का वर्चस्व खत्म करने में चार दशक लगे, लेकिन अब पार्टी का अस्तित्व खत्म होता लग रहा है. देश को सर्वसत्तावाद, निरंकुशता और वर्चस्ववाद से बचाने के लिए मजबूत राजनीतिक दल जरूरी हैं.

यूरोप के राष्ट्रवाद से इतर भारत में एक ऐसे राष्ट्रवाद की बहस छिड़ी है जिसमें देश के भीतर ही पड़ोसी पड़ोसी को ललकारता हुआ दिखेगा. समुदाय सुरक्षित नहीं रह जाएंगे और एक व्यापक असामाजिकता चारों ओर फैलती जाएगी जो अपने लिए मंजूरी की तस्दीक कराती चलेगी. इसका विरोध करने वाली ताकतों का न रहना एक दुर्घटना ही होगा. राष्ट्रीय राजनीति के परिप्रेक्ष्य में देखें तो कांग्रेस को ये रोल निभाते रहना था. लेकिन लीडरशिप और दूरदर्शिता और मेहनत के अभाव ने इस पार्टी को इतना सिकोड़ दिया है कि ये अपनी ही एक परछाई नजर आने लगी है. और ये ध्यान रखना चाहिए कि परछाइयों से देश नहीं बनता.