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समझौते ने दी पहचान

८ मई २०१५

भारत और बांग्लादेश के सीमा विवाद में फंसे 51 हजार नागरिकता विहीन लोग अब अपना देश चुन सकेंगे. दक्षिण एशिया के दो पड़ोसी देशों ने एक समझौता का आपसी समझ के नए रास्ते खोले हैं.

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तस्वीर: DW/M, Mamun

पश्चिम बंगाल के कूचबिहार जिले और उससे सटे बांग्लादेश के तीन जिलों में स्थित 162 भूखंडों के 51 हजार से ज्यादा लोगों के लिए इस साल दीवाली और ईद इस साल समय से पहले ही आ गई है. आखिर ऐसा होता भी क्यों नहीं ? देश के विभाजन के बाद से ही नागरिकताविहीन जीवन बिता रहे इन लोगों को संसद में पारित भूमि सीमा समझौते ने एक पहचान जो दे दी है. इनकी कुछ पीढ़ियां बेवतन ही गुजर गईं. लेकिन अब इस समझौते ने इनको अपना वतन चुनने की आजादी दे दी है. इनका त्योहार वैसे तो मंगलवार को इस विधेयक को कैबिनेट की मंजूरी मिलने के बाद ही शुरू हो गया था. लेकिन संसद में इसके पारित होने के बाद तो इन लोगों की खुशियों का कोई ठिकाना नहीं है. लोगों ने बम और पटाखे तो फोड़ कर अपनी खुशियों का इजहार तो किया ही, हाइवे से गुजरने वाले वाहन सवारों को रोक कर मिठाइयां भी बांटीं.

देश के विभाजन के समय कूचबिहार जिले और इससे सटे बांग्लादेश के तीन जिलों में कई ऐसे भूखंड रह गए थे जो थे तो पड़ोसी देशों के अधिकार क्षेत्र में, लेकिन विडंबना यह थी कि वह देश उनको अपना नागरिक ही नहीं मानता था. इस जिले से सटे बांग्लादेश के तीन जिलों—लालमनीरहाट, निल्फामारी और कुड़ीग्राम में स्थित 101 भारतीय भूखंडों में लगभग 37 हजार लोग रहते हैं. इसी तरह कूचबिहार में स्थित 51 बांग्लादेशी भूखंडों में 14 हजार लोग रहते हैं. लेकिन इन लोगों को कोई नागरिक अधिकार या सुविधाएं हासिल नहीं थीं. यह लोग न तो भारत के नागरिक थे और न ही बांग्लादेश के. यानी देश की आजादी के बाद से ही यह लोग न घर के थे और न ही घाट के. इनकी कई पीढ़ियां अपनी पहचान की तलाश में इस दुनिया से कूच कर गईं. लेकिन अब ताजा समझौते ने अतीत की गलतियों को दुरुस्त कर दिया है.

पश्चिम बंगाल के कूचबिहार जिले के बांग्लादेशी भूखंड कोरला में रहने वाले रशीदुर आलम अब कुछ दिनों में तमाम औपचारिकताएं पूरी करने के बाद खुद को भारतीय नागरिक कह सकते हैं. सीमा पार बांग्लादेश के कुड़ीग्राम जिले के भारतीय भूखंड पुटीमारी में रहने वाली फरजाना बेगम भी उनकी तरह ही खुश हैं. वह भी अब खुद को बांग्लादेशी नागरिक कह सकेगी. दरअसल, रशीदुर और फरजाना जैसे कोई 51 हजार लोग अब तक किसी देश के नागरिक नहीं थे. रशीदुर का कोरला गांव (बांग्लादेशी भूखंड) चारों और से भारत से घिरा है और कुड़ीग्राम का पुटीमारी नामक भारतीय भूखंड बांग्लादेश से. रशीदुर बताते हैं, "हमारा गांव कहने को तो चारों ओर से भारत से घिरा था. लेकिन हमें कोई नागरिक और मौलिक सुविधाएं हासिल नहीं थी. भारत हमें अपना मानता नहीं था और बांग्लादेश ने भी हमसे अछूतों वाला रवैया अपना रखा था. हम वोट भी नहीं दे पाते थे." वह बताते हैं कि कई बार पहचान पत्र नहीं होने की वजह से काम की तलाश में बाहर निकलने पर पुलिस परेशान करती थी.

Indischer Premierminister Narendra Modi
अगले महीने बांग्लादेश जाएंगे मोदीतस्वीर: Reuters/M. Blinch

इन भूखंडों में रहने वाली आबादी का ज्यादातर हिस्सा अल्पसंख्यक है. इन भूखंडों में रहने वाले लोगों की सहूलियत के लिए वर्ष 1992 में मेखलीगंज इलाके में तीनबीघा गलियारा खोल जरूर दिया गया था. लेकिन वहां बने गेट तय समय पर ही खुलते और बंद होते थे. अब समझौते ने इस राह की तमाम बाधाएं दूर कर दी हैं.

भारत बांग्लादेश इनक्लेव एक्सचेंज कोआर्डिनेशन कमेटी (बीबीईईसीसी) कोई दो दशकों से इस मानवीय त्रासदी को खत्म करने की मांग में आंदोलन करती रही है. दो साल पहले कमेटी की ओर से हुए एक सर्वेक्षण में यह बात सामने आई थी कि बांग्लादेश स्थित भारतीय भूखंडों में रहने वाले 37 हजार में से कुल 743 लोग ही भारत लौटना चाहते हैं जबकि भारत स्थित बांग्लादेशी भूखंडों में से कोई भी सीमा पार नहीं जाना चाहता. इस समझौते के बाद इन भूखंडों में रहने वालों को अपना देश चुनने की आजादी होगी. यानी अगर कोई भारत में रहना चाहता है तो उसे भारतीय नागरिकता मिल जाएगी और बांग्लादेश में रहने के इच्छुक लोगों को उस देश की. कमेटी के मुख्य संयोजक दीप्तिमान सेनगुप्ता कहते हैं, "हमें अपनी खोई हुई पहचान मिल गई है. अब हम भी सामान्य नागरिक की तरह जीवन-यापन कर सकते हैं." कूचबिहार में एक अन्य बांग्लादेशी भूखंड में रहने वाले सद्दाम मियां कहते हैं, "हमारी असली ईद तो अब मनेगी." वह कहते हैं कि अब हमारी भी एक पहचान होगी और भावी पीढ़ियों को उस त्रासदी से नहीं गुजरना होगा, जिससे पहले की पीढ़ियां गुजर चुकी हैं. यानी अब देर से ही सही, इन भूखंडों में रहने वालों का जीवन एक बार फिर पटरी पर लौटने की उम्मीद है.

ब्लॉग: प्रभाकर, कोलकाता