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अमीरों की थाली में गरीबों का अनाज

१२ अगस्त २०१४

बॉलीवुड अभिनेत्री माधुरी दीक्षित एक विज्ञापन में बच्चों को समझा रही हैं कि ओट्स वाली मैगी खाने वाले बेहतरीन फुटबाल खेलते हैं. कभी गरीबों का खाना समझा जाने वाला अनाज अमीरों के थाली का हिस्सा बन रहा है.

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तस्वीर: D.Dutta/AFP/Getty Images

बाजार में मोटे अनाज वाले उत्पाद और मल्टीग्रेन आटे की मांग बढ़ रही है. ब्लड प्रेशर, कोलेस्ट्रॉल और शुगर का लेवल संतुलित बनाए रखने के लिए मोटा अनाज अमीरों और शहरी मध्यवर्ग के भोजन का अनिवार्य हिस्सा बन गया. लेकिन इसकी कीमत गरीब किसान चुका रहा है और उसकी थाली का भोजन शहरी अमीर खा रहा है.

कम पानी और कम देखरेख में पैदा होने वाले जौ, चना, बाजरा, मक्का, सांवा, कोंदों, रागी जैसी फसलें बोने वाले छोटे किसानों के दिन फिर भी नहीं बदले हैं. क्योंकि सरकार वर्षों से गेहूं और चावल पर सब्सिडी देती आ रही है. इन्हीं फसलों के समर्थन मूल्य घोषित होते हैं, इसलिए यही फसलें पनपीं और इन्हीं फसलों पर रिसर्च भी खूब हुई तो इनकी बेहतरीन नस्लें भी तैयार हुईं. लेकिन बढ़ती समृद्धि के साथ आने वाली बीमारियों ने मोटे अनाज को अमीर के सिर माथे बिठा दिया.

बढ़ रही है क्रॉनिक बीमारी

केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के सर्वे के मुताबिक देश के सबसे बड़े प्रांत यूपी के एक लाख में से 1000 लोग डायबिटीज से और डेढ़ हजार हाइपरटेंशन से पीड़ित हैं जबकि 1100 को क्रॉनिक रेस्पिरेटरी बीमारी है. इन सभी को डॉक्टर और डाइटीशियन मोटा अनाज खाने की सलाह देते हैं. मोटे अनाज में सबसे अधिक फायदेमंद ओट है जिसमें विशेष प्रकार का फाइबर बीटा ग्लूकैन होता है जो ब्लड कोलेस्ट्रॉल को संतुलित रखता है. इससे दिल की बीमारी की गुंजाइश कम होती है. इसमें इनोजिटाल पाया जाता है जो खून में कोलेस्ट्रॉल के लेवल को सही रखता है. ब्लड शुगर और इनसुलिन को भी नियंत्रित रखने के कारण यह मधुमेह के रोगियों को भी बहुत भाता है.

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तस्वीर: STR/AFP/Getty Images

चलन बढञने के कारण रेस्तरां भी मोटा अनाज अपनाने पर मजबूर हैं. ओट्स दोसा और मल्टीग्रेन दोसा धड़ल्ले से बिक रहा है. ओट केक, ओट ब्रेड, म्यूसली के अलावा मल्टीग्रेन आटा यानी जिसमें जौ, बाजरा, चना, मक्का आदि मिले हों, बाजार पकड़ चुका है. आयुर्वेदाचार्य डाक्टर शिव शंकर तिवारी के मुताबिक मोटा अनाज आंतों को एक्सरसाइज कराता है इसी कारण इसे खाने वालों को कब्ज नहीं होता. आयुर्वेद में डिप्रेशन के लिए हाई फाइबर भोजन की ताकीद की जाती है. हेल्थ ट्रेनर आशुतोष तो आयोडाइज्ड नमक को छोड़ सेंधा नमक खाने की सलाह देते हैं. हेल्थजोन के सुधीर श्रीवास्तव नानी-दादी के नुस्खों पर लौटने की सलाह देते हैं. इसी सब ने मोटे अनाज को शहरों का भोजन बना दिया है.

बढ़ती मांग घटती खेती

मोटे अनाज की मांग तो बढ़ रही है लेकिन गांवों में उसकी बुवाई बढ़ने के बजाए घट ही रही है. मोहनलालगंज के मलखान सिंह पहले पांच बीघा में जौ आदि बोते थे लेकिन दो साल से बंद कर दिया. क्योंकि गेहूं और चावल बोने में ही फायदा है. बताते हैं कि जौ बाजरा अभी भी खुदरा बाजार में नहीं बिकता. सीतापुर के बिसवां के राम किशन गरीब किसान हैं, पिछली फसल में 17 हजार रुपये के कर्जदार हो गए. मोटे अनाज के लिए महाजन भी उधार नहीं देता है. उनका कहना है कि गेंहू, चावल और गन्ने के लिए ही उधार मिलता है. लखनऊ से सटे बख्शी का तालाब के आफाक अहमद कहते हैं कि मोटे अनाज के खरीदार ही नहीं हैं तो बोएं क्यों. कोई नहीं खरीदने वाला.

फिर शहरी बाजार में मोटा अनाज आ कहां से रहा है? बिग बाजार के सीनियर मैनेजर राकेश पांडिया ने इस गुत्थी को यूं सुलझाया कि अधिकांश कंपनियों ने अपने उत्पाद के लिए बड़े बड़े फार्म हाउस तैयार करवाए हैं जिनमें हाईब्रीड मोटा अनाज पैदा किया जाता है. देसी मोटे अनाज से किसी भी कंपनी का कोई प्रोडक्ट तैयार नहीं होता. देसी मोटा अनाज देर में पैदा होता है और हाईब्रीड की तुलना में इसका फल का उत्पादन कई गुना अधिक होता है.

एमवे के फ्रेंचाइजी अशोक सिंह प्रधान के अनुसार उनकी कंपनी अपने फार्म हाउसेस में स्वयं फसलें पैदा कराती है. इनमें अधिकांश आर्गेनिक होती हैं. इसकी फसलों में जैविक खाद का इस्तेमाल होता है जबकि अधिकांश किसान साधारण उर्वरक खेतों में डालते हैं जिसका प्रतिकूल प्रभाव होता है. प्रधान के अनुसार बड़ी कंपनियां अपनी साख बनाए रखने के लिए गुणवत्ता से कोई समझौता नहीं करतीं. यानी मोटे अनाज का बाजार चढ़ा लेकिन उससे फायदा किसान के बजाए कंपनियों को हुआ.

रिपोर्ट: एस. वहीद, लखनऊ

संपादन: महेश झा