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आईएस ने कहा, हमें छोड़ कर मत जाओ

आने अलमेलिंग/आईबी१२ दिसम्बर २०१५

पश्चिमी देशों के लिए शरणार्थियों का आना सिरदर्द बना हुआ है, तो खुद को इस्लामिक स्टेट कहने वालों के लिए उनका जाना. कभी धमका कर, तो कभी बच्चों की दुहाई दे कर लोगों को बाहर जाने से रोकने में लगा है आईएस.

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Symbolbild - Flüchtlinge
तस्वीर: Getty Images/AFP/B. Kilic

उस एक तस्वीर ने पूरी दुनिया को हिला कर रख दिया. बोद्रुम के तट पर पड़ा तीन साल का आयलान कुर्दी. उसकी लाल टीशर्ट खिसक कर थोड़ा ऊपर आ गयी थी, जूते पूरी तरह गीले हो चुके थे. पहली नजर में लगता था जैसे आयलान वहां सो रहा हो. लेकिन उसका चेहरा पानी में डूबा हुआ था, नन्हा आयलान मर चुका था.

सितंबर में इस तस्वीर को दुनिया भर के अखबारों और सोशल मीडिया में हजारों बार दिखाया गया. क्योंकि भूमध्यसागर में डूबे उस बच्चे की यह एक तस्वीर पूरे शरणार्थी संकट को बयान कर रही थी.

और सिर्फ अखबारों में ही नहीं, "दाबिक" में भी यह तस्वीर छपी. "दाबिक" इस्लामिक स्टेट द्वारा चलाई जाने वाली पत्रिका है. इसे अंग्रेजी में छापा जाता है और इसका ऑनलाइन संस्करण भी है. अन्य अखबारों की तरह इसमें भी तस्वीर के साथ लेख लिखा गया था और इसका शीर्षक था, "द डेंजर - ऑफ एबनडनिंग दारुल इस्लाम" यानि इस्लामिक स्टेट के नियंत्रण वाले इलाके को छोड़ कर जाने का जोखिम.

बच्चों का वास्ता

इस तस्वीर का आईएस ने अपने मकसद के लिए इस्तेमाल करना चाहा. लेख में कई धार्मिक नेताओं के बयानों द्वारा यह सिद्ध करने की कोशिश की गयी है कि एक सच्चा मुसलमान कभी "इस्लामिक स्टेट" को पीठ दिखा कर भाग नहीं सकता. लोगों को डराने के लिए यह भी लिखा गया है कि "ऐसे गद्दारों" को पश्चिमी देशों में जा कर किस तरह शराब और ड्रग्स के नशे से भरी ऐसी दुनिया में जीने पर मजबूर होना पड़ेगा, जहां इस्लाम के लिए कोई जगह नहीं है. यहां तक कि उन्हें अपने बच्चों का वास्ता भी दिया गया कि सीरिया और लीबिया से जा रहे लोगों की तरह अपने बच्चों के जीवन से खिलवाड़ ना करें.

"दाबिक" में छपे इस लेख के साथ आईएस ने एक बात तो मान ली है, कि लोग उसे छोड़ कर जा रहे हैं. अगर यह वाकई एक "इस्लामिक स्टेट" होता, तो भला लोग ऐसा क्यों करते? इसे तो दुनिया भर के मुसलामानों के लिए आकर्षण का केंद्र होना चाहिए था. लेकिन ऐसा क्यों है कि लोग इसे हर कीमत पर छोड़ कर भाग रहे हैं?

जर्मनी के पूर्व सांसद और लेखक युर्गेन टोडेनहोएफर दस दिन इस्लामिक स्टेट में बिता कर आए हैं. लौट कर उन्होंने वहां के हालात पर एक किताब भी लिखी. उनका कहना है, "दिलचस्प बात यह है कि सभी लोग एक ही दिशा में जा रहे हैं. सीरिया में कोई भी असद के इलाके से भाग कर अपनी मर्जी से आईएस के इलाके में नहीं जा रहा है, बल्कि इसका उल्टा हो रहा है. लोग आईएस के इलाके से निकल कर सरकार के कब्जे वाले इलाकों में जा रहे हैं."

हमें छोड़ कर मत जाओ

खुद को इस्लामिक स्टेट कहने वालों और कथित रूप से एक खिलाफत स्थापित करने वालों की नजर में यह गलत दिशा है. "दाबिक" में छपे उस दो पन्ने के लेख के अनुसार मुसलमानों को आईएस की ही शरण में आना चाहिए. ना तो उन्हें अलावियों के पास जाना चाहिए, ना शियाओं के पास और ना कुर्दों के. और यूरोप और अमेरिका जैसी नापाक जगहों में जाने का तो सवाल ही नहीं उठता, "इस्लामिक स्टेट वाले इलाके को अपनी मर्जी से छोड़ कर जाना न केवल एक बहुत बड़ा जोखिम, बल्कि एक बेहद बड़ा पाप है."

अब तक कितने लोग इस इलाके को छोड़ कर जा चुके हैं, यह कहना मुश्किल है. संयुक्त राष्ट्र के आंकड़ों के अनुसार अकेले सीरिया में ही 80 लाख लोग विस्थापित हैं. इनके अलावा और 40 लाख सीरियाई लोगों ने आस पड़ोस के मुल्कों में पनाह ली हुई है. टोडेनहोएफर बताते हैं, "आईएस की नजरों में यह सब हराम है."

हालांकि इतनी बड़ी संख्या में लोगों के जाने के बावजूद अब तक आईएस ने अपनी रणनीति में कोई बदलाव नहीं किया है. पूरे लेख में एक बार भी कहीं यह बताने की कोशिश नहीं की गयी है कि आखिर इतनी बड़ी तादाद में लोग आईएस को छोड़ कर क्यों जाना चाह रहे हैं. कट्टरपंथियों के आतंक का कोई अंत नहीं दिखता. लेकिन एक बात तो साफ हो गयी है, खुद आईएस भी शरणार्थियों के मुद्दे को नजरअंदाज नहीं कर पा रहा है. आखिर जब लोग ही नहीं रहेंगे, तो वह राज किस पर करेगा?