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सभी पक्षों को विश्वास में लेना जरूरी

४ अगस्त २०१५

भारत सरकार और नगा विद्रोही संगठन के इसाक-मुइवा गुट के बीच हुए समझौते को ऐतिहासिक कहा जा रहा है, लेकिन पूर्वोत्तर में उग्रवाद के खात्मे की राह इतनी आसान नहीं है.

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तस्वीर: STR/AFP/Getty Images

पूर्वोत्तर के सबसे पुराने उग्रवादी संगठन नेशनल सोशलिस्ट कॉन्सिल ऑफ नगालैंड (एनएससीएन) के इसाक-मुइवा गुट के साथ हुए समझौते को केंद्र सरकार भले ऐतिहासिक बता कर अपनी पीठ थपथपा रही हो, हकीकत यह है कि नगालैंड में उग्रवाद के खात्मे की राह इतनी आसान नहीं है. इस हकीकत को इसी तथ्य से समझा जा सकता है कि इस समझौते तक पहुंचने में केंद्र और इसाक-मुइवा गुट को कोई 18 साल लग गए और इसके लिए देश-विदेश में दोनों के प्रतिनिधियों के बीच तीन दर्जन से ज्यादा बैठकें हुईं. म्यांमार में सक्रिय इसी संगठन के खापलांग गुट ने शांति प्रक्रिया के प्रयासों को परवान चढ़ता देख कर बीते जून में सेना के 20 जवानों की हत्या कर अपनी मंशा साफ कर दी थी. नगालैंड के मुख्यमंत्री टी.आर. जेलियांग ने तो इस समझौते का स्वागत किया है. लेकिन नगा नेशनल कॉन्सिल (एनएनसी) के अलावा एनएससीएन के बाकी तीन गुटों ने अब तक इस पर कोई टिप्पणी नहीं की है.

नगालैंड में उग्रवाद की समस्या तो आजादी के समय ही शुरू हो गई थीं. वर्ष 1952 में हुए चुनावों का बहिष्कार कर चीन के साथ संपर्क करने के बाद भारत सरकार ने 1953 में फिजो की अगुवाई वाले नगा नेशनल कॉन्सिल पर पाबंदी लगा दी थी. उसके बाद 1955 में नगा पहाड़ियों को अशांत क्षेत्र घोषित कर दिया गया. उसके साल भर बाद ही एनएनसी ने नगा फेडरल गवर्नमेंट का गठन कर लिया. 1957 में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु के साथ बैठक के बाद वहां केंद्र के तहत नगा प्रशासन का गठन किया गया. आखिर में 1963 में नगालैंड देश का 16वां राज्य बना. पांच दिसंबर को शिलांग समझौते पर हस्ताक्षर किए गए. लेकिन मुइवा और इसाक चिशी स्वू ने पांच साल बाद इसे खारिज करते हुए एनएससीएन का गठन किया. आठ साल बाद यह संगठन भी दो-फाड़ हो गया. एक गुट की कमान खापलांग ने संभाली तो दूसरी की इसाक व मुइवा ने. केंद्र सरकार ने 1990 में इसाक-मुइवा गुट पर पाबंदी लगा दी. अप्रैल, 1995 में केंद्र ने पूरे नगालैंड को अशांत क्षेत्र घोषित कर दिया. इसके दो साल उसने मुइवा गुट के साथ युद्धविराम के समझौते पर हस्ताक्षर किए.  खापलांग गुट के साथ भी इस आशय का अलग समझौता हुआ. बाद में खापलांग गुट भी दो-फाड़ हो गया. खापलांग गुट ने वर्ष 2012 में म्यामांर के साथ युद्धविराम के समझौते पर हस्ताक्षर किए थे.

केंद्र ने 1997 में मुइवा गुट के साथ शांति प्रक्रिया शुरू की थी. पहले तो इस प्रक्रिया की शर्तों को तय करने में ही लंबा वक्त लगा. उसके बाद देश-विदेश में तीन दर्जन से ज्यादा बैठकें हुईं. लेकिन इस दौरान भी नगालैंड में समय-समय पर युद्धविराम के उल्लंघन की घटनाएं होती रहीं. इस बीच केंद्र में सरकारें बदलती रहीं. हर नई सरकार नए सिरे से इस प्रक्रिया को शुरू करती रही. इस वजह से समय गुजरता रहा और नतीजा वही ढाक के तीन पात ही रहा. शांति प्रक्रिया के बावजूद नगालैंड में जमीनी हकीकत जरा भी नहीं बदली है. वहां छोटे व्यापारी से लेकर सरकारी कर्मचारी तक तमाम लोग उग्रवादी संगठनों को टैक्स देने पर मजबूर हैं. केंद्र व राज्य सरकारों ने इसकी जानकारी के बावजूद चुप्पी साध रखी है. उधर, खापलांग गुट शुरू से ही शांति प्रक्रिया का विरोधी रहा है. अभी बीते जून में सेना के काफिले पर हमला कर उसने साफ कर दिया है कि इलाके में शांति बहाल करने में उसकी कोई दिलचस्पी नहीं है.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस समझौते को ऐतिहासिक भले करार दिया है, फिलहाल इसकी शर्तों का कोई खुलासा नहीं किया गया है. यह भी नहीं बताया गया है कि यह समझौता किस तरह लागू किया जाएगा. पूर्वोत्तर के राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि इस समझौते की कामयाबी इसकी शर्तों पर ही निर्भर है. इसकी वजह यह है कि नगा संगठन शुरू से ही असम, मणिपुर और अरुणाचल प्रदेश के नगाबहुल इलाकों को मिला कर ग्रेटर नगालैंड के गठन की मांग करते रहे हैं. यही उनकी प्रमुख मांग है. लेकिन समझौते में इस बारे में कुछ नहीं कहा गया है. पर्यवेक्षकों की राय में इस मांग को नहीं मानने की स्थिति में किसी समझौते का कामयाब होना असंभव है. यही वजह है कि छात्र संगठन नगालैंड स्टूडेंट्स फेडरेशन (एनएसएफ) ने कहा है कि शर्तों का खुलासा हुए बिना वह समझौते पर कोई टिप्पणी नहीं करेगा.

दूसरी ओर, नगा संगठन जिन तीन राज्यों के नगा-बहुल इलाकों को लेकर ग्रेटर नगालैंड के गठन की मांग करते रहे हैं, उन सबने साफ कर दिया है कि वे अपनी एक इंच जमीन भी हाथ से नहीं निकलने देंगे. पूर्वोत्तर की राजनीति के जानकार लोगों का कहना है कि अगर समझौते में केंद्र ने ग्रेटर नगालैंड के गठन की शर्त मान ली तो पूरा इलाका एक बार फिर अशांत हो उठेगा. दूसरी ओर, अगर एनएससीएन नेताओं ने इस मांग के पूरी हुए बिना ही समझौते पर हस्ताक्षर किए हैं तो उनके लिए स्थानीय नगा संगठनों व लोगों की भावनाओं को संतुष्ट करना बेहद कठिन होगा. ऐसी हालत में एनएससीएन का खापलांग गुट इस मांग को नए सिरे से उठा कर दोबारा उग्रवाद भड़काने का प्रयास करेगा.

इस समझौते का भविष्य ऐसे ही कई अनुत्तरित सवालों पर टिका है. समझौते की शर्तों का खुलासा होने के बाद ही यह साफ होगा कि इससे आजादी के बाद से ही उग्रवाद से जूझ रहे नगालैंड में समुच शांति बहाल होगी या फिर यह समझौता भी फाइलों में ही दब कर रह जाएगा. वैसे, एक बात तो साफ ही है कि सभी पक्षों को विश्वास में लिए बिना इलाके में शांति की बहाली एक सपना ही है.

ब्लॉग: प्रभाकर