1. कंटेंट पर जाएं
  2. मेन्यू पर जाएं
  3. डीडब्ल्यू की अन्य साइट देखें

इलेक्ट्रॉनिक जासूसी का पार्क

२६ फ़रवरी २०१४

इंटरनेट ने ज़िन्दगी जितनी आसान की है, उतनी ही मुश्किल भी. सिर्फ़ भारत में चार साल में साइबर अपराध दस गुना बढ़ गए हैं.

https://p.dw.com/p/1BFeh
तस्वीर: Alexandr Mitiuc - Fotolia.com

जासूसी के इस दौर में जानकारी ही सबसे अच्छा बचाव हो सकता है और जासूसी की जानकारी ब्रिटेन की बकिंघम यूनिवर्सिटी से बेहतर कहीं नहीं मिल सकती. यहां इसकी पढ़ाई होती है और अगर आज जेम्स बांड भी होते, तो शायद यहां एक कोर्स जरूर करना चाहते.

ब्लेचली पार्क में इलेक्ट्रॉनिक जासूसी की नींव रखी गई थी. दूसरे विश्व युद्ध में नाजी जर्मनी के जासूसों के संदेश एनिग्मा नाम की मशीन में कोड किए जाते थे. अंग्रेज जासूस ब्लेचली पार्क में इन खुफिया संदेशों का मतलब जानने की कोशिश करते थे. सुरक्षा की पढ़ाई कर रहे ये छात्र अब भी इन पुरानी मशीनों से काफी प्रभावित हैं. एक छात्रा मेरिका जोसेफीडेस बताती हैं, "मुझे लगता है इसी से हमने युद्ध जीता. पता चला की टैंकों और हथियारों के साथ खुफिया तरीके से कैसे युद्ध जीता जा सकता है." वहीं अन्य छात्र सैम गारसिया कहते हैं, "काम तो बहुत बढ़िया किया, हमने, मित्र देशों ने. लोकतंत्र की जीत हुई. आज भी हमारे पास कुछ रहस्य हैं और इनकी मदद से हम जीत सकते हैं."

सुरक्षा की पढ़ाई कर रहे छात्रों को इस समय काफी फायदा हो रहा है. उद्योग और सरकारी विभागों में खास तौर से सुरक्षा विशेषज्ञों की मांग बढ़ रही है. बकिंघम यूनिवर्सिटी में आधे से ज्यादा छात्र विदेश से आते हैं. पढ़ाई कर रही है एक स्टुडेंट कहते हैं, "मेरे लिए आतंकवाद पर काबू और जासूसी के बारे में जानना अहम है. मेरे देश ट्यूनीशिया में क्रांति के बाद से आतंकवाद बढ़ गया है और मैं समझना चाहती हूं कि ट्यूनीशिया में क्या हो रहा है."

अमेरिकी एजेंट एडवर्ड स्नोडन यहां भी चर्चा में हैं. बकिंघम यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर एंथनी ग्लीस कहते हैं, "मुझे लगता है कि स्नोडन का हमारे छात्रों की सोच पर बड़ा प्रभाव है. जहां उन्हें वैसे ही शक होता था, स्नोडेन ने उनका शक बढ़ा दिया है. एक तरफ वो छात्र हैं जो जानना चाहते हैं कि यह स्नोडन का मामला क्या था और एक तरफ वह हैं जो पहले से जानते थे कि यह क्या था, क्योंकि वह यही काम कर रहे हैं. अगर उन्हें शक है तो स्नोडेन पर है, खुफिया एजेंसियों पर नहीं."

लेकिन खुफिया एजेंसियां आए दिन लोगों की जानकारी इंटरनेट से हासिल करती रहती हैं. ऐसे में क्या सामान्य इंटरनेट यूजर भी शक के दायरे में नहीं आ जाता. सैम गारसिया को ऐसा नहीं लगता, "अगर आपने कुछ गलत नहीं किया है तो डरने की जरूरत नहीं. वह आपको ढूंढेंगे भी नहीं. अगर चाहते हैं तो वह ढूंढ सकते हैं लेकिन अगर आपने कुछ नहीं किया है तो आपको डरने की जरूरत नहीं क्योंकि अगर वह जांच भी करेंगे तो उन्हें कुछ नहीं मिलेगा."

ब्लेचली पार्क की पुरानी मशीनों के मुकाबले अब जानकारी जुटाना आसान हो गया है. इंटरनेट की नई पीढ़ी तो मान कर चल रही है कि जासूसी से पीछा नहीं छुड़ाया जा सकता.

रिपोर्टः मानसी गोपालकृष्णन

संपादनः आभा मोंढे