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इस सिनेमा में नया क्या है

३० सितम्बर २०१३

हिंदी के मुख्यधारा मसाला सिनेमा की एक ताजा फिल्म का नाम है, फटा पोस्टर निकला हीरो. हमारे समय के सामाजिक, राजनीतिक मुद्दों, घटनाओं और तनावों पर बन रही फिल्मों के दम को परखने के लिए मानो ये टाइटल ही काफी हो.

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फटा पोस्टर निकला हीरो से एक बिंब तो ये मान लें कि जैसे कुछ बुरा घटित हुआ और देवता की तरह हीरो प्रकट हुआ. दूसरा बिंब ये बनता है कि फिल्म का कंटेंट एक कमजोर पोस्टर ही निकला और सब कुछ छिटककर बाहर आ गया, हीरो भी. तीसरा बिंब ये कहता है कि मुख्यधारा के हिंदी सिनेमा को जितना सार्थक और यथार्थपरक दिखाने की कोशिश करो अंततः होता वही है...हर गंभीर बात का सतहीकरण, सतही बात का गंभीरीकरण.

बड़े जटिल राजनीतिक और सामाजिक मुद्दों पर हिंदी में फिल्में बन तो रही हैं लेकिन वे अपने कंटेंट से लेकर ट्रीटमेंट तक ऑडियेंस के सामने सरलीकृत नतीजे लाती हैं. वे पेचीदगियों को समझने या उनका कोई जवाब पाने का जोखिम उठाने की झलक दिखाती हैं लेकिन फिर न जाने कैसे ये झलक अभिनेताओं के बॉलीवुडीय प्रताप में कहां विलुप्त हो जाती है. इस सिलसिले में हाल की एक फिल्म है सत्याग्रह.

गंगाजल, चक्रव्यूह और राजनीति नाम की फिल्मों के निर्माता निर्देशक प्रकाश झा की सत्याग्रह अंततः अभिनय चमकाने के लिए बनाई गई फिल्म लगती है, विषय की जेनुइनिटी से वो जल्द ही पीछा छुड़ा लेती है और फिर उसके पास वही उपक्रम और औजार बचे रहे जाते हैं जिनसे हमारा ये मसालेदार सिनेमा जाना जाता है. मंत्री को पीट कर ले जाता हुआ एक हाथ से घायल नायक, अपनी दिव्यता से आप ही अभिभूत नायिका, चंद पुलिसकर्मियों के सामने गुस्से से भरी एक विशाल भीड़ और फौरन ही नायक के डॉयलॉग से डिजॉल्व होती हुई. विचार तो आइटम सॉन्ग के साथ पहले ही हाशिए पर आ जाता है.

भीड़ को अनियंत्रित, बेकाबू, हिंसक और गुस्सैल दिखाया जाता है. उसका ट्रांसफॉर्मेशन नहीं होता. फिर ये सत्याग्रह क्यों और किस बात का है. हमारे सितारे अपनी अदायगी की झूम में निकल जाते हैं. जनता को असहाय और जवाब से वंचित छोड़कर. दिल्ली के विफल अन्ना आंदोलन की ये उतनी ही नाकाम सिने पेशकश मानी जाएगी और तो छोड़िए ये फिल्म अपने शीर्षक की अहमियत भी दर्शको को नहीं बता पाई.

बौद्धिकता का झांसा है या किसी ज्वलंत मुद्दे को इनकैश करने की मुनाफा रणनीति. यानी स्मार्ट फिल्में बन रही हैं लेकिन जेनुइन सिनेमा नहीं कर रहे हैं. बॉलीवुड की इसी स्मार्टनेस का एक नजारा देखने को मिलता है मद्रास कैफे नाम की फिल्म में. कथित हॉलीवुडीय गंभीरता और बौद्धिकता में लिपटी इस फिल्म में यूं घटनाएं जीवंत हैं, उनका फिल्माकंन भी सधा हुआ है और प्लॉट विश्वसनीय लगता है. शुजित सरकार ने एक अलग तरह का जोखिम तो लिया है लेकिन बहुत दूर तक जाने का जोखिम उन्होंने नहीं उठाया है. विवादों से अपनी फिल्म को बचाने की कोशिश करते हुए शुजित ने एक नाजुक मुद्दे को छुआ है. मुद्दा तमिल संघर्ष, श्रीलंका के हालात या भारतीय रोल नहीं है, मुद्दा है एक पूर्व पीएम का तमाम इंटेलीजेंस की उपलब्धता के बावजूद मारा जाना. फिल्म तकनीक और प्रस्तुति के लिहाज से ये एक अलग फिल्म बेशक है और वही इसकी तारीफ भी है, उससे आगे मद्रास कैफे ने मुद्दों को उसके बहुत सारे आयामों में तलाश करने की जहमत नहीं उठाई है. भारतीय दर्शक को चमत्कृत करने के लिए(जिस तरह से उसका सिने स्वाद इधर बनाया(बिगाड़ा) गया है,) उसमें इतना शायद पर्याप्त हो.

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विडंबना देखिए कि अपनी प्रस्तुति में अलग इन फिल्मों को तुलना में रखने के लिए हॉलीवुड की कसौटी ही हमें दिखाई देती है. मानो दुनिया में कहीं और तो सिनेमा हो ही नहीं रहा हो. हमारे अधिकांश फिल्मकार भी प्रस्तुति के कसाव के लिए हॉलीवुडीय महानता के कायल नज़र आते हैं.

मुंबई की मेनस्ट्रीम फिल्म इंडस्ट्री से निकली और हिंदी पट्टी के कोनों खुंजो को अपना पड़ाव बनाने वाली कई धाराएं भी इधर खूब दिखाई दे रही हैं. लेकिन उन जगहों से वो कोई निर्णायक सिनेमा कर रहे हों, ऐसा मानने में हिचक होती है. मिसाल के लिए गैंग्स ऑफ वासेपुर को लीजिए. अभिनय का बोलबाला है बेशक और इंडस्ट्री को बेहतर अदाकार मिल रहे हैं लेकिन हिंसा सेक्स और रक्तपात देखिए. रिएलिटी दिखाने के लिए इतनी सारी अधमताओं को दिखाना एक तरह से फिल्म का बॉक्सआफिसीकरण करना ही तो है. दूसरी ओर आतंकवाद जैसा हमारे नामचीन फिल्मकारों का प्रिय मुद्दा. विश्वरूपम को देखिए जो न सिर्फ हॉलीवुड बल्कि अमेरिका के आगे भी वैचारिक रूप से नतमस्तक फिल्म नजर आती है. पॉलिटिकली करेक्ट रहने और वैसी फिल्में बनाने में जोखिम नहीं है. यही हो रहा है.

फिर समाज, राजनीति और अपराध जगत के दबंगों की फिल्में भी इधर बनी हैं, वे महिमामंडन और ग्लैमरीकरण करती हैं उस दबंगई की वैचारिकता पर चोट नहीं करती उसे चुनौती नहीं देती. सरकार, सरकार राज, डी कंपनी, वंस अपॉन ए टाइम इन मुंबई (दो बार) आदि फिल्में हैं. स्त्री हिंसा से जुड़ी फिल्म नो वन किल्ड जेसिका भी अदाकारी की चारदीवारी में फंसी रह गई फिल्म थी. अब आप ये देखिए कि अगर स्त्रियों पर हिंसा की भयावहता दिखानी पड़े तो हमारा ये हिंदी सिनेमा उसे किस अंदाज में पेश करता है. अगर कोई मार्मिक सी फिल्म आती दिखती हो तभी ग्रैंड मस्ती नाम की एक लगभग अश्लील फिल्म आ जाती है जिसके प्रचार के बैनर पोस्टर भी उतने ही भयानक हैं. मूर्ख और यौनकुंठित से दिखते तीन पुरुषों के कंधों से झूली हुईं और उनकी कुर्सियों के नीचे से देह दिखाती हुई तीन जोड़ी रूपसियां हैं. मैं जहां से रोज गुजरता हूं उस रास्ते मल्टीप्लेक्स के बाहर ये विशाल पोस्टर कई दिनों तक लगा रहा. सत्याग्रह इससे पहले हो चुका था.

ब्लॉगः शिवप्रसाद जोशी, देहरादून

संपादनः एन रंजन