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उग्रवाद के खात्मे के लिए दीर्घकालीन रणनीति जरूरी

११ जून २०१५

भारतीय सेना के पड़ोसी म्यांमार में उग्रवादियों के दो शिविरों को नष्ट कर सौ से ज्यादा लोगों को मार गिराने के बाद सरकार और मीडिया भले पीठ थपथपा रही हो, ऐसी एकाध घटनाओं से पूर्वोत्तर में उग्रवाद का खात्मा संभव नहीं है.

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तस्वीर: Getty Images/AFP/N. Seelam

उग्रवाद की समस्या से निबटने के लिए सरकार को स्थानीय लोगों को साथ लेकर दीर्घकालीन रणनीति बनानी होगी. देश की आजादी के बाद से ही पूर्वोत्तर और उग्रवाद एक-दूसरे के पर्याय रहे हैं. हालत यह है कि इलाके के सात राज्यों में कोई भी ऐसा राज्य नहीं है जो उग्रवाद से अछूता है. कोई दो दशकों तक लालदेंगा की अगुवाई में चले उग्रवादी आंदोलन से जूझने के बाद मिजोरम में भले शांति बहाल हो गई है, लेकिन दूसरे राज्य इसका दावा नहीं कर सकते.

नया सिरदर्द

केंद्र सरकार और नगा उग्रवादी संगठनों के बीच कोई 17 साल तक चले युद्धविराम के दौरान हिंसा की खबरें तो मिलती रही थीं. लेकिन चार जून को सेना के जवानों पर हमले जैसी बड़ी घटना कभी नहीं हुई. अब नेशनल लिबरेशन फ्रंट आफ नगालैंड (एनएससीएन) के खापलांग गुट ने इस साल अप्रैल में एकतरफा तरीके से युद्धविराम तोड़ने का एलान कर दिया. उसके तुरंत बाद ही अल्फा, बोड़ो, कामतापुर लिबरेशन आर्गानाइजेशन और एनएससीएन समेत सात संगठनों ने इलाके में उग्रवाद या अपने शब्दों में आजादी के आंदोलन को धारदार बनाने के लिए यूनाइटेड नेशनल लिबरेशन फ्रंट आफ वेस्टर्न साउथ ईस्ट एशिया (यूएनएलएफडब्ल्यू) नामक एक नया संगठन बना लिया.

उसी के बाद सेना पर बड़े हमले की योजना बनी. एनएससीएन नेता एसएस खापलांग के पड़ोसी म्यांमार की सरकार के साथ बेहतर रिश्ते हैं. इसीलिए सुरक्षा एजेंसियां अब तक उन पर हाथ नहीं डाल सकी हैं. ताजा सूचना के मुताबिक, खापलांग फिलहाल रंगून के एक अस्पताल में भर्ती हैं. सुरक्षा विशेषज्ञों का कहना है कि यह नया संगठन सरकार के लिए एक बड़ा सिरदर्द साबित हो सकता है. इसीलिए म्यामांर सरकार के सहयोग से उनके शिविरों पर हमले की योजना बनी. लेकिन म्यामांर में अभी ऐसे सैकड़ों शिविर हैं जहां कम से कम दो हजार उग्रवादियों को प्रशिक्षण दिया जा रहा है.

उग्रवादी संगठन

असम में यूनाइटेड लिबरेशन फ्रंट आप असम (अल्फा) के अलावा बोड़ो और हमार संगठन उग्रवाद में सक्रिय हैं. नगालैंड और मणिपुर तो इलाके में उग्रवाद से सबसे प्रभावित राज्य हैं. पूर्वोत्तर राज्य आजादी के बाद से ही उग्रवाद के केंद्र में रहे हैं. इसकी एक प्रमुख वजह है इलाके में हथियारों की सहज उपलब्धता. छह दशकों से उग्रवाद से जूझ रहे नगालैंड में एके-47 से एके-57 तक तमाम आधुनिकतम हथियार और गोला-बारूद आसानी से मिल जाते हैं. नगा उग्रवादी संगठन एनएससीएन के मुख्यालय और राज्य के प्रवेशद्वार दीमापुर में यह हथियार चीन व म्यांमार के रास्ते पहुंचते हैं.

एनएससीएन ने सबसे पहले उग्रवाद का बिगुल बजाया था. बाद में वह गुट दोफाड़ हो गया. एनएससीएन का इसाक-मुइवा गुट असम, मणिपुर और अरुणाचल प्रदेश के नगा-बहुल इलाकों को मिला कर वृहत्तर नगालैंड के गठन और संप्रभुता की मांग कर रहा है. केंद्र सरकार ने कोई 15 साल पहले संगठन के इसाक-मुइवा गुट के साथ शांति प्रक्रिया शुरू की थी. लेकिन देश-विदेश में दर्जनों बैठकों के बावजूद राज्य की जमीनी हकीकत में कोई बदलाव नहीं आया है. अब तो वह युद्धविराम भी टूट गया है. सरकार चाहे किसी की भी हो, राज्य में उग्रवादियों की समानांतर सरकार चलती है.

मणिपुर

मणिपुर घाटी में जितने उग्रवादी संगठन हैं उतने शायद इलाके के किसी भी राज्य में नहीं हैं. इस राज्य में कोई तीन दर्जन छोटे-बड़े संगठन सक्रिय है. यहां उग्रवाद के फलने-फूलने की एक प्रमुख वजह इस राज्य की सीमा का म्यामांर से मिलना है. राज्य की 398 किलोमीटर लंबी सीमा म्यामांर से सटी है. जंगलों से भरा यह इलाका उग्रवादियों की अबाध आवाजाही के लिए काफी मुफीद है. नगा बहुल उखरुल जिले में तो नगा संगठन एनएससीएन के इसाक-मुइवा गुट का समानांतर प्रशासन चलता है.

वहां एनएससीएन की मर्जी के बिना पत्ता तक नहीं डोलता. हत्या से लेकर तमाम आपराधिक मामलों की सुनवाई भी नगा उग्रवादी ही करते हैं. लोग सरकार या अदालत के फैसलों को मानने से तो इंकार कर सकते हैं. लेकिन एनएससीएन नेताओं का फैसला पत्थर की लकीर साबित होती है. वरिष्ठ राजनीतिक पर्यवेक्षक एच. दोरेंद्र सिंह सवाल करते हैं, ‘आखिर शांति प्रक्रिया किसके साथ शुरू करे सरकार? यहां कम से कम तीन दर्जन गुट हैं. उन सबको शांति प्रक्रिया के लिए एक छतरी के नीचे लाना असंभव है. ऐसे में मणिपुर से उग्रवाद का खात्मा मुमकिन ही नहीं है.'

उग्रवादी आंदोलन पर असर

अब सवाल यह है कि सेना के ताजा हमले का नगा उग्रवादी आंदोलन पर क्या दूरगामी असर हो सकता है. इससे तात्कालिक तौर पर तो कुछ हद तक अंकुश भले लगे, लेकिन उग्रवादी जवाबी हमले जरूर करेंगे. राज्य में उग्रवादी संगठनों के सदस्यों की तादाद हजारों में है और उनके पास आधुनिकतम हथियार हैं. इसलिए इसे बड़ी कामयाबी नहीं समझना चाहिए.

इलाके में उग्रवाद के खात्मे का कोई शॉर्टकट नहीं है. अब भी पड़ोसी देशों में कोई दो हजार उग्रवादियों ने शरण ले रखी है. उनके खात्मे के अलावा सेना व सरकार को स्थानीय लोगों का भरोसा जीतना होगा. इसके साथ ही इलाके में विकास की प्रक्रिया को तेज करते हुए रोजगार के मौके पैदा करने होंगे ताकि उग्रवादियों को आम लोगों से काटा जा सके.

ब्लॉग: प्रभाकर