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समाज

क्यों उत्तर कोरिया वापस लौटना चाहते हैं सियो

२१ सितम्बर २०१७

उत्तर कोरिया को धरती की सबसे बड़ी जेल कहा जाता है. वहां रहने वाले लोगों को बाहरी दुनिया से संपर्क करने की इजाजत नहीं है लेकिन 90 साल के सियो ओक-रयोल मरने से पहले उत्तर कोरिया जाने की ख्वाहिश रखते हैं. 

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Südkorea ehemaliger nordkoreanischer Spion Ok-Ryol im Interview
तस्वीर: Getty Images/AFP/E. Jones

सियो ओक-रयोल ने अपनी जिंदगी के तीन दशक दक्षिण कोरिया में सलाखों के पीछे रहकर गुजारे, जहां उनका अधिकतर वक्त एकांतवास में गुजरा. जासूसी के मामले में सियो को दो बार मौत की सजा दी गयी. फिलहाल वह पैरोल पर बाहर है और दक्षिण कोरिया में रह रहे हैं. लेकिन 90 साल के सियो मरने से पहले एक बार उत्तर कोरिया में स्थित अपने घर जाना चाहते हैं और अपनी पत्नी और बच्चों से मिलना चाहते हैं जिन्हें उन्होंने अलविदा भी नहीं कहा.

सियो का जन्म कोरिया के उस हिस्से में हुआ था जो आज दक्षिण कोरिया की सीमाओं में आता है. दक्षिण कोरिया में सियो के आज भी कई रिश्तेदार रहते हैं. लेकिन कोरियाई युद्ध में सियो उत्तर कोरियाई सेना की ओर से लड़ रहे थे और उत्तर कोरिया के लिए जासूसी करते थे लेकिन एक मिशन के दौरान उन्हें पकड़ लिया गया.

Südkorea ehemaliger nordkoreanischer Spion Ok-Ryol im Interview
तस्वीर: Getty Images/AFP/E. Jones

उत्तर कोरियाई झुकाव

सियो कहते हैं कि उन्होंने कुछ गलत नहीं किया और उन्हें बस अपनी उस जमीं से प्यार है जिसमें उत्तर और दक्षिण दोनों ही हिस्से आते हैं. साल 2000 में कोरियाई सम्मेलन के दौरान हुए एक फैसले के तहत दक्षिण कोरिया ने तकरीबन 60 बंदियों को उत्तर कोरिया वापस भेजा था. इनमें से अधिकतर सैनिक और जासूस ही थे. लेकिन सियो को वापस नहीं भेजा गया क्योंकि सियो ने जेल से अपनी रिहाई सुनिश्चित करने के लिए दक्षिण कोरिया के प्रति वफादार रहने की कसम खायी थी. इसकी एवज में सियो को दक्षिण कोरियाई नागिरकता दी गयी थी. लेकिन अब कार्यकर्ता सियो और अन्य 17 उम्रदराज कैदियों की रिहाई और उन्हें वापस भेजने के लिए अभियान चला रहे हैं जो अब भी उत्तर कोरिया के लिए वफादार हैं. इनमें से एक कैदी की उम्र 94 साल है.

दक्षिण कोरियाई सीमा के एक द्वीप पर जन्मे सियो, सियोल स्थित कोरिया यूनिवर्सिटी में पढ़ा करते थे. पढ़ाई के दौरान ही उनका झुकाव साम्यवादी विचारधारा की ओर हुआ और कोरियाई युद्ध के दौरान उन्होंने उत्तर कोरिया की ओर से हथियार उठा लिये. वह उत्तर कोरिया की सत्तारूढ़ वर्कर्स पार्टी में शामिल हो गये और साल 1961 में उन्हें उत्तर कोरिया के एक जासूसी ट्रेनिंग सेंटर में बतौर शिक्षक भेजा गया.

जासूसी मिशन

एक वरिष्ठ सरकारी अधिकारी की भर्ती करने के लिए सियो को एक मिशन पर दक्षिण कोरिया भेजा गया था. इस अधिकारी का भाई उत्तर कोरिया में था. सियो इस मिशन को पूरा करने के लिए नदी पार कर दक्षिण कोरिया पहुंचे जहां वह अपने माता-पिता और भाई-बहनों से भी मिलने में सफल रहे. लेकिन जब सियो ने उस अधिकारी से मिलकर उसे उसके भाई का पत्र दिया तो उस अधिकारी ने बेहद ही ठंडा जवाब दिया और कहा, "मेरे भाई का मरना ही मेरे लिए अच्छा है. मैंने प्रशासन से कहा है कि वह युद्ध के दौरान मारा गया." उसने सियो को भी ऐसे जाने नहीं दिया और उसके बारे में शासन को सूचित कर दिया. उस वक्त भी उत्तर कोरियाई लोगों से संपर्क करने पर सजा का प्रावधान था. कुल मिलाकर सियो का मिशन नाकाम रहा और उन्हें तकरीबन एक महीने सियोल में रहना पड़ा जिस दौरान वह वापसी की लगातार कोशिशें करते रहे. सियो की सभी कोशिशें नाकाम रहीं और एक मौके पर जब वह तैर कर नदी पार कर रहे थे तब नदी की तेज धार ने उन्हें तट पर ला कर पटक दिया जिसके बाद दक्षिण कोरियाई प्रशासन ने सियो को हिरासत में ले लिया. 

Südkorea ehemaliger nordkoreanischer Spion Ok-Ryol im Interview
तस्वीर: Getty Images/AFP/E. Jones

सियो कहते हैं "एक जासूस के तौर पर आपके पास मरने के अलावा कोई विकल्प नहीं होता लेकिन मेरे पास मरने का भी समय नहीं था."

सियो ने बताया कि गिरफ्तारी के बाद उनसे कई महीनों तक कड़ी पूछताछ की गयी, मारपीट की गयी और कई बार तो खाने पीने और सोने भी नहीं दिया गया. इसके बाद सैन्य अदालत ने उन्हें जासूसी का दोषी पाया और मृत्युदंड की सजा दी. हालांकि साल 1963 में सियो को मिली मौत की सजा इस आधार पर कैद में बदल दी गयी कि एक नौसिखिया जासूस था जो अपने मिशन में विफल रहा. लेकिन एक अन्य कैदी का साम्यवाद की ओर झुकाव पैदा करने के इल्जाम में साल 1973 में सियो को एक बार फिर मृत्युदंड दिया गया. सियो ने बताया कि कानूनी खर्चों को पूरा करते-करते उनके मां बाप का घर बिक गया और इस दौरान उनकी मौत भी हो गयी.

कहानी इतनी ही नहीं

1970 के दशक में दक्षिण कोरियाई सैन्य तानाशाही ने उत्तर कोरियाई कैदियों को दोबारा शिक्षित करने के प्रयास किये थे. यह वही वक्त था जब कार्यकर्ता और पूर्व कैदी लगातार यह कह रहे थे कि जेलों में उन्हें पीटा जाता है, सोने और खाने के लिए नहीं दिया जाता और अंधेरों में रहने को मजबूर किया जाता है.

लेकिन सियो उस वक्त भी डटे रहे और अपनी एक आंख का इलाज कराने के लिए तैयार नहीं हुए. सियो बताते हैं, "मुझसे यह वादा किया गया था कि वह मेरा इलाज करायेंगे मुझे अस्पताल ले जाएंगे लेकिन वह मुझे मंजूर नहीं था. क्योंकि मैं अपनी विचारधारा के साथ समझौता नहीं कर सकता था. मेरी राजनीतिक विचारधारा मेरी जिदंगी से अधिक कीमती थी."

तीन दशक जेल में गुजारने के बाद सियो ने एक समझौता किया और दक्षिण कोरियाई कानूनों का पालन करने का वादा किया. पैरोल पर बाहर आने के बाद सियो अपने जन्मस्थान और अपने भाई-बहनों के नजदीक रहने चले गये लेकिन आज भी उनका दिल अपनी पत्नी और बच्चों के पास वापस लौटने के लिए मचलता है. सियो की नजरों में आज भी एकीकृत कोरिया का सपना जिंदा है. सियो की रिहाई के कुछ सालों बाद जर्मनी में रहने वाली एक कोरियाई महिला ने उत्तर कोरिया की राजधानी का दौरा किया. उसने उन्हें बताया कि उनकी पत्नी और बच्चे जिंदा हैं लेकिन साथ ही सलाह भी दी कि वह उनसे संपर्क साधने की कोशिश भी ना करें. सियो के मन में आज भी अपने परिवार से मिलने की ख्वाहिश जिंदा है लेकिन वह जानते है कि मौजूदा स्थिति में यह संभव नहीं है.

एए/एके (एएफपी)