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नेपाली शेरपाओं में आक्रोश

२९ अप्रैल २०१४

दुनिया की सबसे ऊंची पर्वत शृंखला माउंट एवरेस्ट की चोटी को चूमने की तमन्ना रखने वाले पर्वतारोही शेरपाओं की मदद के बिना यह मुकाम हासिल नहीं कर सकते. अब उन्होंने काम का बहिष्कार करके अपने अधिकारों के लिए आवाज उठाई है.

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तस्वीर: picture-alliance/dpa

नेपाल के शेरपाओं का गुस्सा जायज है और सरकार ने भी उनकी मांगों पर विचार करके अपनी संवेदनशीलता का परिचय दिया है. सालों से पर्वतारोहियों की मदद कर उन्हें एवरेस्ट की चोटी तक पहुंचाने वाले शेरपाओं का गुस्सा पहली बार खुलकर दुनिया के सामने आया है. एवरेस्ट पर्वतारोहियों की जान कहे जाने वाले नेपाल के इन शेरपाओं का गुस्सा 18 अप्रैल को एवरेस्ट की राह पर खुम्बु हिम प्रपात के नजदीक हिमस्खलन में अपने 16 साथियों की मौत के बाद फूटा. इस दुर्घटना में बहुत से शेरपा घायल हुए.

यह एवरेस्ट पर्वतारोहरण के इतिहास की अभूतपूर्व दुघर्टना है. आपदा के बाद सभी शेरपा काम छोड़कर वापस लौट आए. करीब 97 फीसदी शेरपाओं ने काम छोड़ दिया और सरकार से अपनी सुरक्षा की मांग करने लगे. मारे गए शेरपाओं का अंतिम संस्कार भी तनाव के माहौल में हुआ और आखिर नेपाल सरकार को उनकी मांग मानने के लिए मजबूर होना पड़ा.

पिकनिक स्थल बना एवरेस्ट

सर एडमंड हिलेरी और शेरपा तेनजिंग नॉर्गे के रुप में 1953 में इंसान ने धरती के इस शीर्ष शिखर पर पहली बार पांव रखे और तब से 3000 से अधिक लोग एवरेस्ट की चोटी पर पहुंच चुके हैं. पहाड़ों का राजा एवरेस्ट अब सही मायने में पिकनिक स्थल जैसा बन चुका है. इस धवल उतुंग शिखर पर पर्वतारोहियों की बढ़ती संख्या के कारण इलाके में बहुत सारा कचरा फैल रहा है, जो एवरेस्ट के लिए अभिशाप साबित हो रहा है. गर्मी आते ही हर साल बेस कैंप पर हलचल बढ जाती है.

कई शेरपा कहते हैं कि पर्वतारोही अब समर्पण या खेल भावना के साथ धरती पर टिके इस आसमान को छूने नहीं निकलते हैं. इस दुर्गम मार्ग पर पैसे का खेल चल रहा है. पिछले वर्ष अप्रैल में ही यूरोप के एक पर्वतारोही दल तथा पर्वतारोहियों की मदद करने वाले शेरपाओं के बीच साढ़े सात हजार की ऊंचाई पर संघर्ष हो गया था. विवाद तो सुलझ गया लेकिन नेपाल सरकार को आधार शिविर पर सुरक्षा व्यवस्था करने को मजबूर होना पड़ा.

तकलीफदेह काम

एवरेस्ट तक पहुंचने में शेरपा पर्वतारोहियों की पूरी सहायता करते हैं. पर्वतारोहियों के लिए शेरपा उनका सामान ढोने वाले सामान्य मजदूर हैं. वे सिर्फ सामान ही नहीं ढोते, बल्कि पर्वतारोहियों के लिए रास्ता भी बनाते हैं. वे रस्सियों की सीढ़ियां बनाने और पर्वतारोहियों को रास्ता दिखाकर आगे बढ़ाने जैसे कई अहम काम करते हैं. इसके लिए उन्हें पैसा जरूर मिलता है लेकिन यह हाड़मांस गला देने वाली कमाई है.

शेरपाओं का यह काम काफी तकलीफदेह है. पैसे के बढ़ते प्रवाह के कारण उनकी कमाई तो आसान हो गई है लेकिन जीवन कठिन हो गया है. कुछ सालों से महंगे साजो सामान के साथ पर्वतारोहण का प्रचलन बढ़ा है. शेरपा पैसे के लिए जान जोखिम में डाल रहे हैं. अब उन्होंने संगठित होकर अपना बीमा कराने और राहत निधि में बढ़ोत्तरी करने जैसी कई मांगें उठाई हैं.

तेनजिंग नॉर्गे ने दी पहचान

शेरपाओं की आबादी डेढ़ लाख के करीब है और इन्हें तिब्बत मूल का माना जाता है. उनकी आबादी का बड़ा हिस्सा नेपाल के पूर्वी क्षेत्र में रहता है. उनकी भाषा नेपाली से अलग है, उसे तिब्बती और बर्मी भाषा की शाखा बताया जाता है. बहुत से शेरपा पश्चिमी देशों में बस गए हैं. इनमें कई धनवान और विद्वान हैं तथा उनकी अपनी पहचान है.

सबसे पहले 1953 में तेनजिंग नॉर्गे की वजह से दुनिया शेरपा शब्द से परिचित हुई. शेरपा तेनजिंग एवरेस्ट पर सर एडमंड हिलेरी के साथ पहुंचने वाले पहले व्यक्ति थे. उनके पुत्र जमलिंग तेनजिंग नॉर्गे ने पिता की परंपरा को कायम रखा और 1996 में एडविस्टर तथा सरासेली के साथ इस श्रृंखला पर परचम लहराया.

शेरपाओं के नाम एवरेस्ट विजय के कई रिकॉर्ड हैं. सबसे कम 8 घंटे 10 मिनट में एवरेस्ट पर पहुंचने का रिकार्ड शेरपा दोरजी के नाम है, जो उन्होंने 21 मई 2004 को बनाया. इसी तरह 11 मई 2011 को अपा शेरपा ने 21 बार एवरेस्ट पर पहुंचने का रिकार्ड बनाया, जबकि 19 मई 2012 को 16 वर्षीया निमा हुमजी शेरपा सबसे कम उम्र की एवरेस्ट विजेता महिला बनी.

एमजे/आईबी (वार्ता)