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समाज

कपड़ा उद्योग की चुभती दास्तान है मशीन्स

क्रिस्टीने लेनन
१० नवम्बर २०१७

दस्तावेजी फिल्म "मशीन्स" कारखाने के मजदूरों के जरिये भारत की समाजिक और आर्थिक विषमता को रेखांकित करती है. राहुल जैन की इस फिल्म को अन्तराष्ट्रीय मंचों पर खूब सराहना मिली है. इस हफ्ते फिल्म जर्मनी में भी रिलीज हुई है.

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Filmstills Machines
तस्वीर: Pallas Film

राहुल जैन की दस्तावेजी फिल्म "मशीन्स" कारखाने के मजदूरों के जरिये भारत की समाजिक और आर्थिक विषमता को रेखांकित करती है.  इस फिल्म को अन्तराष्ट्रीय मंचों पर खूब सराहना मिली है. इस हफ्ते फिल्म जर्मनी में भी रिलीज हुई है.

गुजरात के कपड़ा कारखाने में काम करने वाले मजदूरों के जीवन में झांकती फिल्म "मशीन्स" कामगारों के बहाने सामाजिक-आर्थिक विषमता को बखूबी कहती है. मजदूरों के संघर्ष और चुनौतियों से दुनिया को परिचित कराने वाली यह फिल्म "देश के आर्थिक विकास" से एक बड़े वर्ग के वंचित होने की दास्तान भी है. 75 मिनट लम्बी इस फिल्म में मजदूरों के अनकहे दर्द को भी महसूस किया जा सकता है.

मजदूरों की एक सी कहानी

राहुल जैन ने इस दर्द को दोनों तरफ से देखा है. उनके दादा कारखाना मालिक थे. उनकी परवरिश अभावों के बिना हुई है. अब उन्होंने औद्योगिक विकास को दूसरी ओर से देखा है. इस दौर में जन्मी विसंगतियों पर कैमरा मुखर है. इसमें किशोर-युवा मजदूरों के सपनों पर भी कैमरे की नजर पड़ती है, तो फिल्म यह दिखाने में भी कामयाब रही कि किस तरह समृद्धि का सृजक मजदूर, समृद्धि से दूर है. अपने औद्योगिक विकास के लिए अलग पहचान रखने वाले गुजरात में मजदूरों को कम पारिश्रमिक में अधिक काम करना पड़ता है और वह भी कभी कभी खतरनाक हालात में.

Indien Arbeiter duscht in Mumbai
सड़क पर बीतती जिंदगीतस्वीर: Reuters/D. Siddiqui

12-12 घंटे काम करने को मजबूर मजदूरों को इतना भी पारिश्रमिक नहीं मिलता कि वह सूकून का जीवन जी सकें. समाजशास्त्री और रिटायर्ड प्रोफेसर डॉ. साहेब लाल कहते हैं कि लोककल्याणकारी राज्य होने के बावजूद भारत में श्रमिकों की स्थिति अच्छी नहीं हैं. उनका कहना है कि गरीबी और बेरोजगारी इतनी ज्यादा है कि जो मिल रहा है, मजदूरों ने उसे स्वीकार कर लिया है. फिल्म में एक मजदूर कहता है कि भगवान ने हाथ दिया है काम करने के लिए. जाने अनजाने अधिकतर मजदूर उचित पारिश्रमिक और अपने अधिकारों के लिए आवाज नहीं उठाना चाहते.

शोषण से बेपरवाह

यह फिल्म कारखाने में मजदूरों के काम के हालातों को करीब से दिखाती है. फिल्म मजदूरों के शोषण को अपरोक्ष मगर असरदार तरीके से पेश करती है. लेकिन, अधिकतर मजदूर इस शोषण से अनजान हैं या इसे नियति मानकर स्वीकार कर चुके हैं. कारखाने में ही सोने और अस्वच्छ माहौल में खाने को मजबूर मजदूर इसको लेकर ज्यादा चिंतित नहीं होते. समय से पारिश्रमिक मिलने की उनकी चिंता इतनी ज्यादा होती है कि उन्हें कार्यस्थल के असुरक्षित माहौल से घबराहट नहीं होती. बॉम्बे हाई कोर्ट में अधिवक्ता रवि श्रीवास्तव कहते हैं कि पूरे भारत में मजदूरों की यही कहानी है. श्रम कानून तो ऐसे हैं कि मजदूरों को न्याय दिला सकें लेकिन खुद मजदूर आवाज नहीं उठाना नहीं चाहते.

डॉ. साहेबलाल कहते हैं कि मजदूरों को अपना और अपने परिवार का पेट भरने के लिए "रोटी" चाहिए. इसी "रोटी" के लिए मजदूर हर हालत में काम करना चाहता है. दिहाड़ी मजदूर के लिए अमानवीय हालात और काम के घंटे मायने नहीं रखते क्योंकि एक दिन की हड़ताल भी उसके लिए भारी पड़ती है. गुजरात ही नहीं या कपड़ा कारखाने में ही नहीं, बल्कि हर कारखाने में हर मजदूर के साथ कम या अधिक शोषण होता है.

कपड़ा कारखाने के पृष्ठभूमि में राहुल जैन ने अपने निर्देशकीय प्रतिभा के जरिये एक ऐसे मुद्दे को दर्शकों के सामने रखा है जिसका दायरा सामाजिक और आर्थिक रेखा को लांघ कर राजनीति को भी छूता है. दरअसल कैमरे ने जो दिखाया है वह दर्शकों के मन में सवाल बनकर जिंदा रहेंगे कि आजादी के इतने साल बाद और दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने के बावजूद देश में सभी का विकास क्यों नहीं हो पाया? अर्थव्यवस्था को गति देने वाला मजदूर आखिर विकास के लाभ से वंचित क्यों है?