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कविताएं कंठस्थ कर रहे हैं प्रयाग शुक्ल

२० सितम्बर २०१४

प्रयाग शुक्ल हिन्दी के प्रसिद्ध साहित्यकार एवं पत्रकार होने के साथ-साथ जाने-माने कला-समीक्षक भी हैं. विभिन्न विधाओं में लिखने के बावजूद वे अपने को मूलतः कवि ही समझते हैं.

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तस्वीर: DW/K. Kumar

प्रयाग शुक्ल ने रवींद्रनाथ ठाकुर की ‘गीतांजलि' के अतिरिक्त कई अन्य बंगला साहित्यकारों की कृतियों का हिन्दी में अनुवाद किया है. वे ‘कल्पना' और ‘दिनमान' जैसी प्रतिष्ठित पत्रिकाओं के संपादकीय विभाग में रहे हैं और राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की पत्रिका ‘रंग प्रसंग' और संगीत नाटक अकादेमी की पत्रिका ‘संगना' के संस्थापक-संपादक हैं. प्रस्तुत है उनके साथ हुई बातचीत के कुछ प्रमुख अंश:

आप तो मूलतः साहित्यकार हैं. फिर कला की ओर आपका रुझान कैसे हुआ?

मैं 1963 में उस समय की अत्यंत प्रतिष्ठित पत्रिका ‘कल्पना' में काम करने हैदराबाद गया जहां मेरा परिचय मकबूल फिदा हुसेन से हुआ. मैं उनका काम देखने लगा. इसके पहले 1961-62 में रामकुमार कलकत्ते आए थे और उनसे साथ मैंने गैलरियां देखी थीं, कलाकारों से मिला था और उनका काम देखा था. यूं, उस समय हम उन्हें एक लेखक के रूप में जानते थे जो पेंटिंग भी करते थे. तो कला की दुनिया से मेरा परिचय रामकुमार और हुसेन इन दो बड़े कलाकारों के माध्यम से हुआ. 1964 में मैं हैदराबाद से दिल्ली आया. तेईस साल उम्र थी, फ्रीलांसर था और रहने का कोई ठौर-ठिकाना नहीं था. रामकुमार जी को पता चला तो उन्होंने कहा कि जब तक कोई प्रबंध न हो, मैं उनके गोल मार्केट वाले स्टूडियो में रह सकता हूं जहां वे सुबह नौ बजे के करीब जाते हैं और बारह-एक बजे तक काम करके लौट आते हैं. यह मेरे जीवन की एक बहुत बड़ी घटना थी. मैं वहां तीन महीने रहा और कभी-कभी उन्हें काम करते देखने का मौका मिला, पता चला कि वे अधिकतर नाइफ से काम लेते हैं, उनके रंग देखे, और उनकी पेंटिंग्स देखीं. इस तरह चित्रकला से और वह भी एक बड़े चित्रकार की कला से, यह मेरा पहला परिचय हुआ. वहां तैयब मेहता, हुसैन, कृष्ण खन्ना और अनेक अन्य चित्रकार आते थे, हिन्दी कवि शमशेर भी आते थे. सो, इन सबसे मेरा परिचय हुआ. उन्हीं दिनों कॉफी हाउस में स्वामीनाथन से भेंट हुई. फिर हिम्मत शाह, अंबा दास वगैरह से.

इन्हीं दिनों हिन्दी कवि श्रीकांत वर्मा ‘दिनमान' में विशेष संवाददाता बनकर आए. ‘अज्ञेय' संपादक थे. तब तक मैं ‘धर्मयुग' आदि पत्रिकाओं में चित्रकला पर लिखने लगा था. ‘अज्ञेय' जी ने सबसे पहले मुझसे मुकुल दे के प्रदर्शनी पर लिखवाया. मनोहर श्याम जोशी ‘दिनमान' में सहायक संपादक थे. उन्होंने मेरी बहुत मदद की.

आपने जब कला पर लिखना शुरू किया, तब तो हिन्दी में समीक्षा की शब्दावली भी ठीक से विकसित नहीं हुई थी.

आप ठीक कह रहे हैं. लैंडस्केप के लिए सोचते थे कि क्या लिखें? फिर पता चला कि राय कृष्णदास उसके लिए सैरा लिखते हैं, तो वही लिखना शुरू किया. स्कल्पचर को क्या कहें? आप मूर्ति तो कह नहीं सकते, शिल्प कहने से भी बात नहीं बनती. तो एक दिन मुझे लगा कि क्यों न मूर्तिशिल्प कहें? मुझे बड़ी खुशी है कि यह शब्द स्वीकार कर लिया गया. एचिंग के लिए हमने अम्लांकन सोचा, और वह अभी भी चलता है. लिथोग्राफ के लिए शिलालेख लिया. कुछ शब्दों के लिए कुछ नहीं मिल पाया तो उन्हें वैसा ही रखा, मसलन स्पेस. लेकिन अब तो रंगों के नाम ही गुम हो रहे हैं. हमने ग्रे के लिए धूसर का प्रयोग किया, एक रंग की दूसरे पर छाया के लिए हमने झाईं का इस्तेमाल किया.

आपने कविता, कहानी, उपन्यास तो लिखे ही हैं, बच्चों के लिए भी लिखा है. इन सब विधाओं में लिखने के बावजूद आप अपने को मूलतः क्या समझते हैं? कवि या कथाकार?

मैं तो अपने को कवि ही समझता हूं, उसी में मन भी लगता है. कविता लिखने में, पढ़ने में और कंठस्थ करने में भी. आजकल मेरे साथ एक नयी बात हुई है और मुझे उसमें बहुत आनंद भी आ रहा है. मैं बहुत सारी कविताएं कंठस्थ कर रहा हूं. जयशंकर प्रसाद की, महादेवी जी की, कुछ कालिदास की भी. रात में जो पढ़ता हूं, उसे सुबह सैर करते समय दुहराता रहता हूं. इसी क्रम में वे याद हो जाती हैं.

आप बंगला लगभग मातृभाषा जैसी जानते हैं और आपने गीतांजलि' जैसी अमर कृति का अनुवाद हिन्दी में किया है. इस अनुभव का आपके लिए क्या महत्व है?

यह अनुभव बेहद अच्छा रहा. छंद को बरतता तो रहा हूं, लेकिन अपनी कविता में उसका प्रयोग अपेक्षाकृत कम कर पाया हूं. रवींद्रनाथ की ‘गीतांजलि' का अनुवाद करते समय मैं अपने लिए छंद को फिर से जीवित कर सका. इसके अलावा मैंने रवींद्रनाथ के 200 गीतों का अनुवाद भी किया है, और सब छंद में है. बच्चों के लिए भी खूब लिखा है और उनके लिए तो छंद में ही लिखना होता है. अक्सर कोई स्कूल बुला लेता है तो वहां बच्चों को कविताएं सुनाता हूं और उनके साथ मिलकर गाता हूं. बहुत अच्छा लगता है.

इंटरव्यू: कुलदीप कुमार

संपादन: महेश झा