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कहां गए बारातों में जान फूंकने वाले

२७ दिसम्बर २०१४

हल्के मिलिटरी रंग की यूनीफॉर्म, सिर पर टोपी, हाथ में संगीत यंत्र और दूर दूर तक जाती 'आज मेरे यार की शादी है' की गूंज. ना रहे बारातों के वे अंदाज और ना ही बाकी रही भारत में बैंड बाजों की रौनक.

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Brass Band in Indien
तस्वीर: Getty Images/Ch. Furlong

तकनीकी विस्तार की रफ्तार में गुम हो रहा है ब्रास बैंड का कारोबार. बैंडमास्टर शहनवाज अली के मुताबिक कम पगार, काम का अनियमित समय और अत्यधिक सफर बेहद मुश्किल काम है. उन्होंने बताया, "35 साल तक कई बैंड में बजाने के बाद मेरे पास बिल्कुल भी जमा पूंजी नहीं है." वह अपने बच्चों को कोई दूसरा पेशा चुनने की सलाह देते हैं. उन्होंने कहा, "बैड संगीतकारों के पेशे में भविष्य नहीं है." शादी ब्याह में दिखाई दे रही जगमगाहट से असल में यह पेशा बहुत दूर है.

भारत में साल के इन दिनों में खूब शादियां होती हैं. सोचा जाए तो इन दिनों पारंपरिक ब्रास बैंड की आवाज कानों में पड़ती रहनी चाहिए. लेकिन हालात बदल चुके हैं. बारात के बदलते अंदाज में यह धंधा अपनी रौनक खो चुका है. शादियों में फिल्मी गानों की धुनें बजाते ये बैंड नाचती झूमती बारात में जोश पैदा किया करते थे. आधुनिक समय में युवाओं की पसंद भी बदल चुकी है. शादियों में नौजवान डीजे बुलाकर इलेक्ट्रॉनिक संगीत सुनना पसंद करते हैं. लोगों की पसंद बदलने से बैंड कलाकार और कंपनियों के मालिकों को भारी नुकसान हो रहा है. बात अब उनके अस्तित्व पर आ गई है.

दिल्ली के करीब 100 ब्रास बैंडों में बजाने वाले ज्यादातर कलाकार उत्तर प्रदेश से आते हैं. हिन्दू समुदाय की ज्यादातर शादियां साल के 90 दिनों में होती हैं. पंडितों द्वारा बताई गई ये तारीखें ज्यादातर ठंड के दिनों में होती हैं. बैंड के सदस्यों का आमतौर पर बैंड मालिक के साथ साल भर के लिए करीब 65 हजार का सौदा होता है. शादी के सीजन में ये कलाकार शहरों में आते हैं और काम खत्म होने पर अपने गांव लौट जाते हैं जहां कभी ये मजदूरी करते हैं तो कभी खेती करके काम चलाते हैं.

अली ने बताया, "अक्सर हमें वापस लौटते आधी रात से ज्यादा समय हो जाता है. फिर हमें सोने से पहले अपनी यूनीफॉर्म वापस करनी होती है." गांव से शहर कुछ दिनों की रोजी के लिए आए ये कलाकार छोटे छोटे कमरों में बुरी हालत में रहने को मजबूर होते हैं. बैंड कलाकार रईस अहमद कहते हैं, "हम सब रिश्तेदार हैं इसलिए एक दूसरे के साथ रहने की जगह बना लेते हैं, लेकिन अक्सर यह बस से बाहर हो जाता है." अहमद ने बताया कि कम आमदनी के बावजूद उन्होंने यह काम इसलिए नहीं छोड़ा है क्योंकि साल का एकलौता यही समय आता है जब उनके हाथ में इकट्ठा बड़ी रकम आती है.

कारोबार का सिकुड़ना बैंड मालिकों को भी अखर रहा है. बैंड मालिक संजय शर्मा बचपन के उन दिनों को याद करते हैं जब उनके पिता ने बैंड शुरू किया था. उन दिनों शादी ब्याह बेहद घरेलू कार्यक्रम हुआ करते थे जिनमें ब्रास बैंड संगीत बजाने आया करते थे. इन दिनों शादी की रस्में तो कई दिनों तक चलती हैं लेकिन मेहमान हर कार्यक्रम में सिर्फ डीजे के इलेक्ट्रॉनिक संगीत की धुनों पर थिरकना पसंद करते हैं.

एसएफ/एमजे (एपी)