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कितना सम्मान, कितनी सुरक्षा?

४ जून २०१४

उत्तर प्रदेश में बलात्कार और हत्या के बाद भारत का ब्लॉग जगत एक बार फिर महिला अधिकारों और उनकी सुरक्षा पर बहस कर रहा है. ब्लॉगर बलात्कारों की बढ़ती घटना के बाद समाज, सरकार और पुलिस की सुस्ती पर सवाल उठा रहे हैं.

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तस्वीर: UNI

कलकत्‍ता वि‍श्‍ववि‍द्यालय के हि‍न्‍दी वि‍भाग में प्रोफेसर जगदीश्‍वर चतुर्वेदी अपने ब्लॉग में लिखते हैं, "अभी लोकसभा चुनावों के परिणामों की स्याही सूखी नहीं है. हम अपने अंदर झांकने के लिए तैयार नहीं हैं. लोकसभा चुनाव में हमने औरतों के सवालों पर बातें तक नहीं कीं. मोदी से लेकर शोहदों तक सभी ने जितने भाषण दिए उनमें औरत का मसला ठीक से उठाया ही नहीं गया. जब भी औरत का मसला उठा तो अपने को श्रेष्ठ और दूसरे को हेय और निकम्मा सिद्ध करने के लिहाज से उठाया गया. औरत को भी कानून व्यवस्था का मसला बना दिया गया. सरकार को निकम्मा घोषित करने का औजार बना दिया गया और वोट जुगाड़ करने की मशीन में तब्दील कर दिया गया. कभी किसी भी दल ने औरतों के सवालों पर बुनियादी ढंग से बातें नहीं कीं."

प्रोफेसर जगदीश्‍वर चतुर्वेदी का कहना है कि राजनीतिक दल बदायूं की घटना को यूपी सरकार को गिराने या बदनाम करने के लक्ष्य से आगे देखने को तैयार नहीं हैं. "हम यह जानने और समझने को तैयार नहीं हैं कि हमारा देश 'बलात्कारियों का देश 'कैसे हो गया? क्यों हमारे देश में औरत को ही पग-पग पर लांछन, उत्पीड़न और बलात्कार का सामना करना पड़ता है? वे कौन सी ताकतें और जीवन मूल्य हैं जो औरत पर हो रहे अत्याचारों की तह तक हमें जाने नहीं देते?"

वरिष्ठ पत्रकार ओम थानवी अपने फेसबुक पेज पर लिखते हैं, "उत्तर प्रदेश कानून-व्यवस्था पर कलंक की निशानी बन गया है. दो बहनों की पेड़ से टंगी लाशों की तस्वीर जिस किसी ने देखी होगी, बरसों न भूलेगा. हादसे के चंद घंटों बाद टीवी पर अखिलेश यादव का चेहरा कानून-अपना काम करेगा जैसी सरोकार शून्य प्रतिक्रिया देते वक्त इतना गैर-जिम्मेदाराना था कि उन पर शर्मिंदगी अनुभव होती थी. पहले पिता, अब पुत्र बलात्कार-हत्या उन्हें जैसे हंसी-खेल लगते हों."

नवभारत टाइम्स के पाठकों के ब्लॉग सेक्शन में लक्ष्मी ने लिखा, "पुलिस और कानून व्यवस्था की बात अगर हम छोड़ दें तो बात करें इस तरह की घटनाओं को अंजाम देने वाले लोगों की मानसिकता की, तो क्या यही हमारी आधुनिकता है. क्या हमारी आधुनिक सोच हमें हैवान बनना सिखा रही है? क्या आधुनिकता का ये माहौल हमारे देश के युवाओं को भटका रहा है? क्या आधुनिक होने का मतलब हैवान होना है, तो इससे तो हम पिछड़े ही भले."

नवभारत टाइम्स के एक और पाठक ब्लॉगर दिनेशराय द्विवेदी लिखते हैं, "जब कभी भी कहीं रेप होता है तो बात औरतों और लड़कियों के कपड़ों पर आ जाती है. उसे सेक्स कुंठा से उपजा मामला बता दिया जाता है. पर ये क्या पूरा सच है? नहीं, ये पूरा नहीं अधूरा सच भी नहीं है. वास्तव में औरत को संपत्ति बना दिया गया है. वह पति का, परिवार का और जाति का सम्मान बना दी गई है. वैसे ही जैसे किसी के खेत को कोई दूसरा हांक ले, या जानवर घुसा दे तो केवल नुकसान की बात नहीं होती, वह गांवों में सम्मान की बात भी बन जाती है और तुरंत फौजदारी होते देर नहीं लगती. परिवार के बाहर परिवार की औरत या लड़की परिवार का सम्मान है, लेकिन परिवार में या दूसरे परिवार की औरतें और लड़कियां पैरों की जूती भी हैं."

संकलन: आमिर अंसारी

संपादन: महेश झा