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कुपोषण से जूझते मध्यप्रदेश के बच्चे

काट्या केपनर/आभा मोंढे१५ अक्टूबर २०१४

दुनिया में अभी भी दो अरब लोग कुपोषित हैं. पोषण और विकास नीति पर शोध करने वाली अंतरराष्ट्रीय रिसर्च संस्था आईएफपीआरआई हर साल वर्ल्ड हंगर इंडेक्स जारी करती है. इसके मुताबिक भारत की स्थिति गंभीर बनी हुई है.

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Galerie - Bericht aus Indiens Hungergürtel
तस्वीर: DW/K. Keppner

सारी तकनीकी तरक्कियों के बावजूद देश में हजारों ऐसे बच्चे हैं जो खाना नहीं मिलने के कारण जान से हाथ धो रहे हैं. अंतरराष्ट्रीय खाद्य नीति रिसर्च संस्थान (आईएफपीआरआई) के महानिदेशक शेनगेन फैन ने कहा, "अस्सी करोड़ लोगों के पास पर्याप्त खाना नहीं है, यानि यह मात्रा है, कैलोरी की बात है. लेकिन दो अरब लोग दुनिया में कुपोषण का शिकार हैं."

भारत के मध्य प्रदेश में कुपोषित बच्चों के लिए बनाए गए सरकारी सहायता केंद्र की कर्मचारी की गोद में लक्ष्मी बिलकुल ठंडी पड़ी है. वह उसके हाथ पैरों को मालिश कर गर्म करने की कोशिश कर रही हैं. छोटी सी इस बच्ची ने आंखें तो खोली लेकिन वह कोई प्रतिक्रिया नहीं दे रही. कर्मचारी एंबुलेंस बुलाने को कहती हैं. तीन घंटे से लक्ष्मी जार जार रो रही थी, इस दौरान उसका शरीर खिंच रहा था. उसकी मां उसे चुप करवाने के लिए दरवाजे तक ले गई. अचानक बच्ची ने रोना बंद कर दिया और बेहोश हो गई.

कुपोषित बच्चों के पुनर्वास केंद्र की प्रमुख कुसुम नारवे ने बताया, "अस्पताल के मुताबिक एंबुलेंस तभी भेजी जाएगी जब इलाज करने वाला डॉक्टर सहमति देगा. यह अविश्वसनीय है." नारवे हैरान हैं. पूरे दिन डॉक्टर नहीं आए, कहा गया कि वह किसी अहम काम में फंसे हैं.

एक दो मिनट बाद सहायता केंद्र की कर्मचारियों ने केंद्र की गाड़ी ले जाने का फैसला किया. लेकिन लक्ष्मी अस्पताल पहुंचने तक बच नहीं पाई. लक्ष्मी और उसके जैसे बच्चों की मौत प्रबंधन में कमी की ओर संकेत करती है. लेकिन दुर्भाग्य है कि इस तरह की घटनाओं से भारत के कई शहर हर रोज गुजरते हैं. मध्यप्रदेश सरकार की रिपोर्ट के मुताबिक इस राज्य में पांच साल से कम उम्र वाले आधे से ज्यादा बच्चे गंभीर कुपोषण का शिकार हैं.

मुश्किल में माएं

ऐसे ही बच्चों में से एक है सोनू. उसका पेट एकदम फूला हुआ है, जैसे फैमिन एडिमा के कारण गाल और पेट फूल जाते हैं. तीन साल की सोनू पुनर्वास केंद्र में रह चुकी हैं. इस दौरान तीन बार खाना, दूध और दवाई उसे दी गई जिसका असर भी हुआ. तबसे दो हफ्ते में एक बार उसे जांच के लिए आना पड़ता है. उसका वजन किया जाता है. डर के मारे सोनू मां से चिपकी रहती. अभी कुछ समय से उसकी हालत फिर खराब है. बांह की चौड़ाई सिर्फ दस सेंटीमीटर, तीन साल के बच्चे के लिए यह बहुत कम है.

मां रुना कहती है, "मैं समझ नहीं पा रही हूं कि मुझे क्या करना चाहिए. मेरा बच्चा कमजोर है और मुझे पुनर्वास केंद्र जाना चाहिए. लेकिन मेरा परिवार इसका विरोध कर रहा है." 28 साल की रुना जितने दिन खेत पर नहीं जाएगी उतनी कमाई कम होगी. हर दिन रुना को करीब 80 रुपया मिलता है. वह मक्का, मिर्च या रुई के खेतों में काम करती है. जासमीन खान जैसी सामाजिक कार्यकर्ता मांओं को समझाती हैं कि इस सबके बावजूद उन्हें सहायता केंद्र जाना चाहिए. 26 साल की खान रुना के सास ससुर, डॉक्टरों और उसके पति से बात करती हैं. वह बताती हैं, "अधिकतर परिवार ही इलाज के लिए रोकता है क्योंकि अगर मां अपने बच्चे के साथ एक दो दिन पुनर्वास केंद्र में चली जाएगी तो घर में खाना कौन बनाएगा. वह स्थिति की गंभीरता को नहीं समझते."

अनुपस्थित सरकार

डॉक्टर इलाज नहीं करते और मांएं आपात स्थिति समझ नहीं पाती, कुपोषण के कारणों की सूची लंबी है. अक्सर मांएं भी कुपोषित ही होती हैं. खून की कमी आम है और एक तिहाई भारतीय बच्चों में भी यह कमी अपने आप आ जाती है. कई गांवों में जन साहस जैसे गैर सरकारी संगठन पहली संस्था होते हैं जो दवाई का इंतजाम करते हैं. प्रोजेक्ट प्रमुख हर्षल जरिवाला बताते हैं, "कई मांओं ने तो शुरुआत में हमें उनके घर में ही नहीं घुसने दिया. वह अपने बच्चों का वजन नहीं करवाना चाहती थी. उन्हें लगता था कि इससे उनके बच्चे बीमार हो जाएंगे." इसलिए कई मां बाप अभी भी गांव में आने वाले नीम हकीमों का ही सहारा लेते हैं. कई परिवारों में कुपोषित बच्चों को श्राप माना जाता है क्योंकि उन्हें समझ ही नहीं आता कि बच्चा दुबला क्यों होता जा रहा है. इन गांवों में सरकारी महकमे की कोई गंध नहीं है जबकि इन्हीं गरीबों के लिए राशन के तौर पर सस्ते अनाज की सुविधाएं शुरू की गई हैं और अनाज की गारंटी दी गई है. एक सरकारी कार्यक्रम तो मां और बच्चे के लिए भी बनाया गया है.

ऐसा नहीं है कि सरकारी कार्यक्रमों में धन नहीं दिया जा रहा. उन्हें अच्छे से बनाया गया है. जरीवाला कहते हैं, "भारत के पास संसाधन हैं लेकिन उनका प्रबंधन खराब है और इसमें भ्रष्टाचार भी जुड़ जाता है. जो सुविधाएं और राशन गरीब लोगों के लिए बनाया गया है वह उन तक पहुंचता ही नहीं है क्योंकि ऊपर के लोग सब अपनी जेबों में भर लेते हैं. जब तक लोगों को मदद मिलती है, तब तक देर हो सकती है." ठीक लक्ष्मी के मामले की तरह. तीन साल की लक्ष्मी की जब मौत हुई तब उसका वजन सिर्फ 3,9 किलोग्राम था.