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केरल की नर्सों से अस्पताल खाली

३ मार्च २०१४

फिल्म आनंद में बाबू मोशाय को प्यार भरी कड़क झिड़की देती मैट्रन डिसूजा का किरदार कौन भूल सकता है. हिंदी फिल्मों में नर्सों के ये किरदार अब नजर नहीं आते. क्योंकि हिंदी पट्टी के अस्पतालों से ही ये पात्र विदा हो चुके हैं.

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तस्वीर: S. Waheed

मिशनरी ईसाई अस्पतालों को छोड़ सरकारी और निजी अस्पतालों में केरल की ईसाई नर्सों की जगह देखते ही देखते उत्तर भारत के पिछड़े वर्ग की महिलाओं ने ले ली है. नर्सिंग सेवा भाव की जगह व्यवसाय बन गया और केरल से आने वाली नर्सों ने खाड़ी का रुख कर लिया. दो तीन दशक पहले तक केरल की लड़कियों की आंख मूंद कर नियुक्ति करने वाले अफसर नर्सिंग में डिप्लोमा और डिग्री की अनिवार्यता के झंझट में फंस गए. इससे भी केरल की गरीब नर्सें पिछड़ गईं.

क्रिस्टी, मेरी डिसिल्वा, जूली वाल्टर, इमरसन, अर्चना, मिस्ती, टीना एडवर्ड. भर्ती करने वाला अधिकारी सिर्फ नाम पूछता था और स्नेह, त्याग, निष्ठा तथा सेवा भाव की प्रतिमूर्ति के लिए विख्यात केरल की इंटर पास लड़कियों की भर्ती कर लेता था. सीनियर मेट्रन से रिटायर हुईं निर्मला वाल्टर समाजवादी पार्टी की अल्पसंख्यक सभा यूपी की सचिव हैं. वे बताती हैं कि सरकारी नीतियों के कारण अस्पतालों से सेवा भाव चौपट हो गया. उनके मुताबिक पिछले 12 वर्षों से सरकारी अस्पतालों में नर्सों की भर्ती ही नहीं हुई. 100 बेड पर 35 नर्सों का मानक है, लेकिन अब एक दो नर्सों से जैसे तैसे काम चल रहा है. इसीलिए अस्पतालों में तीमारदारी अब मरीज के रिश्तेदारों का काम हो गया है. निजी अस्तपताल इसीलिए नर्सों की पगार नहीं बढ़ा रहे क्योंकि उन्हें पता है कि उनके पास विकल्पों की कमी है.

संतोष पटेल, इंद्रवती रावत, जानकी चित्रवंशी, कामायनी एक निजी अस्पताल में 6000 रुपए मासिक ठेके पर काम कर रही हैं और इससे इनकार करती हैं कि उनके कारण केरल की नर्सें गायब हो गईं. इनके अनुसार पिछड़े वर्ग ने पिछले दो दशकों में सख्त मेहनत कर हर क्षेत्र में नया मुकाम हासिल किया है. बेरोजगारी, महिला सशक्तिकरण और प्रतिस्पर्धा के दौर में कहीं तो प्रतिभा की जीत हुई.

अब हर निजी अस्पताल ने अपना नर्सिंग स्कूल खोल लिया है जहां डेढ़ से ढाई लाख रुपए में एक साल का नर्सिंग का डिप्लोमा होता है. पीजीआई सरीखे प्रतिष्ठित संस्थानों ने नर्सिंग में डिग्री का कोर्स शुरु कर दिया जिससे प्रतिस्पर्धा और बढ़ गई. निर्मला वाल्टर भी इसकी तस्दीक करती हैं. पीजीआई स्टाफ नर्सिंग एसोसिएशन के महासचिव रुद्र प्रताप शर्मा का तर्क है कि चूंकि छठे वेतन आयोग के बाद तन्ख्वाहें खूब बढ़ीं, सरकारी अस्पताल और पीजीआई की नर्स को पांच साल की नौकरी पर करीब 40 हजार पगार माहवार मिलने लगी. पहले नर्स के नीचे कोई स्टाफ नहीं था. अब एएनएम सहित तीन श्रेणी के कर्मचारी नर्स के नीचे काम करते हैं. शायद इसीलिए नर्सिंग अब गिरी निगाह से देखे जाने वाला पेशा नहीं रहा.

लेकिन रुद्र प्रताप शर्मा बताते हैं कि अभी भी समाज के निचले तबके की महिलाएं ही इस तरफ आ रही हैं. उन्होंने आंकड़े दिए कि नर्सों में करीब 60 फीसदी पिछड़े वर्ग की और 25 फीसदी अनुसूचित जाति की हैं जबकि सिर्फ दो प्रतिशत मुसलमान और उच्च वर्ग की महिलाएं नर्सिंग का पेशा अपना रही हैं. केरल की नर्सों की बाबत पूछने पर उनका कहना है कि जब अपने राज्य की नर्सें मौजूद हैं तो उन्हें कौन पूछेगा. पर निर्मला वाल्टर के मुताबिक उनके साथ भेदभाव किया गया. मजबूरन उन्होंने खाड़ी देशों का रुख किया जहां वह दो तीन साल में ही इतना कमा कर भेज देती हैं कि अगर घर गिरवी रखकर गई हैं तो भी छूट जाता है.

मिशनरी अस्पतालों में अभी भी उन्हें प्राथमिकता दी जाती है. इन अस्पतालों का स्तर भी अच्छा है. शायद यही वजह है कि लखनऊ के विवेकानंद पोलीक्लीनिक के नर्सिंग स्कूल में जब लैम्प लाइटिंग सेरेमनी हुई तो विवेकानंद की आदमकद प्रतिमा के पास क्राइस्ट और मदर मरियम की फोटो भी रखकर ही नर्सों को सेवा भाव की शपथ दिलाई गई.

रिपोर्ट: एस. वहीद, लखनऊ

संपादन: महेश झा

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