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क्या जर्मनी में सब कुछ ठीक है?

७ सितम्बर २०१७

चुनावी साल में जर्मन अर्थव्यवस्था यूं तो बेहद ही ठोस नजर आ रही है लेकिन क्या वाकई यहां सबकुछ ठीक चल रहा है. डीडब्ल्यू के आंद्रियास बेकर ने इसकी विस्तार से समीक्षा की है.

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तस्वीर: picture-alliance/dpa

पहली झलक में सब कुछ ठीक ही नजर आता है. जर्मन अर्थव्यवस्था लगातार बढ़ रही है, दशकों बाद बेरोजगारी भी अपने निचले स्तर पर है और कर राजस्व की बेहतर दर का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि वित्त मंत्रालय ने एक और साल बिना कोई नया कर्ज कर्ज लिये पूरा कर लिया. वहीं कंपनियां भी आशावान है, इनके कार से लेकर मशीन, दवा जैसे सभी उत्पाद दुनिया भर में बेस्टसेलर बने हुये हैं. अर्थव्यवस्था की इस रफ्तार को देखते हुये कइयों ने तो कर कटौती के सपने देखना भी शुरू कर दिया है लेकिन कुछ लोग शंकाएं भी जाहिर कर रहे हैं.

आधारभूत ढांचा

इस बेहतरीन समय में एक गंभीर समस्या भी नजर आ रही है और वो है देश का बुनियादी ढांचा. देश की सड़कें, पुल और स्कूल जर्जर हालत में है. साल 2014 से सार्वजनिक बुनियादी ढांचे की स्थिति का परीक्षण कर रहे एक एक्सपर्ट कमीशन ने अपनी रिपोर्ट में इसे देश की "बुनियादी कमजोरी" बताया है. जर्मन मोटर चालकों के क्लब एडीएसी के मुताबिक हर दिन सड़कों पर 1,900 से अधिक ट्रैफिक जाम लगते हैं, रेलव किसी भी दिन बिना देरी के नहीं चलती.

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तस्वीर: Getty Images/S. Gallup

हर 10 में से एक बच्चे को डे-केयर में जगह पाने के लिये मशक्कत करनी होती है, कानूनी अधिकार होने के बावजूद माता-पिता बच्चे के लिये डे-केयर में जगह नही ढूंढ पाते. देश के 1041 सरकारी स्विमिंग पूल में से अधिकतर बंद हो चुके हैं और बचेखुचे बंद होने की कगार पर हैं. एक्सपर्ट कमीशन की रिपोर्ट में ट्रेड यूनियनों ने शिकायत दर्ज कराते हुये कहा था "सरकारी खर्च में कटौती की गई है, जिसके चलते कई सेवाएं बेकार हो गई हैं या उनका निजीकरण हो गया है. उप कर को बढ़ा दिया गया है और अब शुल्क भी वसूला जाने लगा है." 

शिक्षा पर खर्च

ओईसीडी देशों के मुकाबले जर्मनी शिक्षा पर बेहद ही कम खर्च करता है. ओईसीडी दुनिया के 35 अमीर देशों का समूह है. ये अमीर देश अमूमन अपने कुल आर्थिक उत्पादन का 5.2 फीसदी हिस्सा शिक्षा पर खर्च करते हैं वहीं जर्मनी महज 4.3 फीसदी का निवेश करता है. डिजिटल इन्फ्रास्टक्चर में खासकर इंटरनेट की उपलब्धता और इसकी रफ्तार में भी यहां खासा अंतर नजर आता है. बेहतर कारोबारी माहौल मुहैया कराने वाले टॉप 10 देशों की सूची से जर्मनी अब बाहर हो चुका है. तो क्या अब भी माना जाये की सब कुछ ठीक है.

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इन सब के बीच यह भी एक सच है कि मतदाता इन आर्थिक आंकड़ों के आधार पर वोट डालने नहीं जाते. उनकी अपनी निजी स्थिति किसी भी सरकारी आंकड़ें से ज्यादा अहम होती है. देश के तमाम मतदाता मजदूरी में इजाफे की उम्मीद कर रहे हैं जो फिछले तीन सालों में महज 2 फीसदी ही बढ़ी है और यह इन चुनावों का अहम मुद्दा भी है

सिकुड़ता मिडिल क्लास

मौजूदा हालातों से जर्मन मध्यम वर्ग भी चिंतित है. मध्यम वर्ग पिछले 30 सालों से सिकुड़ रहा है. ड्यूसबर्ग-एसेन यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं की एक रिपोर्ट मुताबिक जर्मनी में कम आय और ज्यादा आय वाले लोगों के औसत में फर्क बढ़ता जा रहा है. यूरोपीय संघ के अन्य देशों के मुकाबले जर्मनी के पास एक बड़ा सेक्टर ऐसा भी है जहां काम करने पर कम पैसे मिलते हैं. यहां के 23 फीसदी लोग कम पैसे पर काम करते हैं. इटली, फ्रांस, डेनमार्क और फिनलैंड में महज 10 फीसदी ही ऐसे सेक्टर हैं. बेल्जियम और स्वीडन में यह सेक्टर सिर्फ 5 फीसदी है.

 

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इतना ही नहीं, देश के बेरोजगारी आंकड़ें भी अलग ही कहानी कहते हैं. साल 2017 के सरकारी आंकड़ों के मुताबिक देश में महज 25 लाख लोग ही बेरोजगार हैं, जो साल 1991 के बाद से अब तक का सबसे निचला स्तर है. लेकिन सरकारी मदद पर देश के तकरीबन 62 लाख लोग निर्भर करते हैं. साल 2005 में "एजेंडा 2010" के तहत श्रम और कल्याण सुधार लागू किये गये थे लेकिन इससे सामाजिक लाभ लेने वाले लोगों की संख्या उतनी कम नहीं हुई जितनी कि बेरोजगारों की संख्या घटी है. ऐसे में सरकार पर दबाव बना हुआ है.

इस चुनावी साल में आर्थिक सवाल बेहद ही अहम है. क्या अब सरकार को बुनियादी क्षेत्र और शिक्षा पर और अधिक निवेश करना चाहिये? या अगली मंदी का इंतजार करना चाहिये? या सरकार को कर में कटौती करनी चाहिये? इनके अलावा ऐसे कई सवाल हैं जो जर्मनी की बेहतर दिखने वाली अर्थव्यवस्था पर सवाल उठाते हैं.

आंद्रियास बेकर