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क्रिसमस का बाजारीकरण

१७ दिसम्बर २०१०

क्रिसमस इसाई धर्म मानने वालों का वो त्योहार है जो दुनिया के ज्यादातर देशों में और हर कोने में धूम धाम से मनाया जाता है. यूरोप अमेरिका, कनाडा साथ एशिया में भी इस त्योहार की तैयारी पहले से ही शुरू हो जाती है

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तस्वीर: MEHR

क्रिसमस इसाई धर्म मानने वालों का वो त्योहार है जो दुनिया के ज्यादातर देशों में और हर कोने में धूम धाम से मनाया जाता है. जर्मनी, फ्रांस, इंग्लैंड, अमेरिका, कनाडा आदि देशों के साथ अफ्रीका और एशिया में भी इस त्यौहार की तैयारी पहले से ही शुरू हो जाती है और 25 दिसम्बर आते आते घर, सड़कें और बाज़ार सज जाती हैं त्योहार का लुत्फ़ उठाने के लिए. और अब तो इस त्योहार का असर कुछ ऐसा हुआ है की चीन जैसे देश में भी, जहां किसी भी धर्म का प्रचलन नहीं है, बाजारों में क्रिसमस की सजावट दो महीने पहले ही देखने को मिलने लगी है.

भारत में भी कई वर्षों से क्रिसमस मनाया जा रहा है लेकिन धीरे धीरे यह त्योहार किसी एक धर्म या समुदाय का ना रह कर एक अंतरराष्ट्रीय पर्व में तब्दील हो गया है. क्रिसमस से बहुत पहले ही दिल्ली, मुंबई, कोलकत्ता और अन्य बड़े शहरों में बाजार चमकने लगते हैं और 24 दिसम्बर की रात को होटलों में तिल रखने की जगह भी नहीं मिलती. लेकिन अगर धयान से देखें तो पता चलता है कि इस सबके बीच प्रेम और भाईचारे की सन्देश देने वाला यह पर्व मुख्य रूप से खाने पीने और नाच गाने तक ही सीमित रह गया है. या अगर यूं कहें की क्रिसमस का बाजारीकरण हो गया है तो गलत नहीं होगा.

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तस्वीर: picture-alliance / dpa

यह कहना मुश्किल है की पहले क्या हुआ? बाजारीकरण या क्रिसमस को मनाने के तौर तरीकों में बदलाव, जिसकी वजह से बाजारीकरण हुआ? लेकिन यह सच है की पिछले 20-25 बरसों में भारत में क्रिसमस को मनाने का तरीका बिलकुल बदल गया है. ``अब तो मुझे लगता ही नहीं की हम क्रिसमस मना रहें हैं,'' कहना है दिल्ली में रहने वाली 67 वर्षीय मोली जोज़फ़ का. उनके अनुसार, ``अब तो लगता है जैसे शहर में कोई बड़ी सेल लगी है और हम सब खरीदारी करने निकले हैं''.

पहले क्रिसमस पर घर में हर व्यक्ति के लिए नए कपड़े बनवाए जाते थे और रीना पीटर के अनुसार, ``नए कपड़े पहने से ज्यादा कपड़े बनवाने के काम में मजा आता था. हमारा पूरा परिवार पहले कपड़ा खरीदने जाता था फिर दर्जी के पास उसे सिलवाने. अक्सर साड़ी के साथ मैचिंग ब्लाउज लेना एक मुश्किल काम होता था लेकिन हम शहर की हर दुकान छान दिया करते थे.'' लेकिन रीना कहती हैं कि, ``अब तो मेरी पोती मेरे साथ बाज़ार जाना ही पसंद नहीं करती. बस रेडीमेड जींस और टॉप से ही क्रिसमस मन जाता है.''

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तस्वीर: picture-alliance / dpa

पुरानी दिल्ली के दरियागंज में जन्मे और अब नाना और दादा बन चुके जॉन मैथउस ने पुराने दिनों की याद ताज़ा करते हुए बताया की कैसे क्रिसमस से दो हफ्ते पहले रात को जामा मस्जिद के इलाके में बेकरी के आगे भीड़ लग जाती थी. वहां घंटो बैठ कर लोग अपने केक बेक करवाते थे और पूरा इलाका केक की खुशबू से भर जाता था. ``अब तो वो सब ख़त्म हो गया है. बस लोग केक फ़ोन करके किसी बड़ी दुकान से घर पर भी मंगा लेते हैं,'' जॉन मैथउस ने ज़रा भावुक होकर कहा. ``हमें तो केक से ज्यादा बेकरी के बाहर रात को बैठकर मज़ा आता था जब हम सब मिलकर क्रिसमस केरल्स भी गाते थे,'' याद दिलाया जॉन मैथउस ने.

बेकरी में केक बनवाने के अलावा एक और चीज़ थी जिसे करने में पूरा परिवार शामिल होता था. वो थी रात को पकवान बनाने का काम. तब बिजली के हीटर के बजाए हर घर में रात को अंगीठी जलती थी और उसके इर्द गिर्द सारा परिवार बैठ कर गुंजिया, शक्कर पारे आदि बनाता था. यहां भी परिवार क्रिसमस केरल्स गाता था और जिनके घर में अच्छे रेडियो थे वो उस पर भी क्रिसमस के संगीत का लुत्फ़ उठाते थे. यह वो एक तरीका था जिससे सारा परिवार साथ बैठ कर बात करता था और घर में एक दूसरे की तकलीफ का पता चलता था. दिल्ली के पुराने निवासी बेज़िल डेनिअल के अनुसार,``अब ना तो पकवान बनता है और न ही लोग क्रिसमस केरल्स गाते हैं. किसी को गाना सुनना भी होता है तो आईपॉड पर सुनते हैं. इससे परिवार में लोग एक दूसरे से दूर भी होते जा रहे हैं.''

अब रात को घर में बनने वाले पकवान की जगह पित्ज़ा हट और मैक्डोनल्ड्स के पित्जा और बर्गर ने ले ली ही. इन फास्ट फ़ूड के अड्डों पर रात को काफी भीड़ रहती है जहां लोग यह खाना खा कर एक दूसरे को हैप्पी क्रिसमस कह कर आगे बढ़ जाते हैं. और फिर जब क्रिसमस के बाद होली, दशहरा या दिवाली आती है तो हैप्पी दिवाली कह देते हैं, खाना वो ही रहता है. तो ज़ाहिर है की बाज़ार ने भारत में क्रिसमस मनाने का तरीका ही बदल दिया है.

पहले क्रिसमस से एक हफ्ते पहले क्रिसमस केरल्स गाने वालों की टोली देर रात घूम घूम कर लोगों के घर जाती थी जहां संगीत गूंजता था और लोग मिलकर चाय कोफी के साथ क्रिसमस मनाते थे. अब ये गाने वाले घरों से ज्यादा बड़े शॉपिंग मॉल्स में गाए जाने लगे हैं. वहां गाने वालों को अच्छी खासी रकम भी मिल जाती है. यह बात अलग है की न तो वहां सुनने वालों को क्रिसमस केरल्स और हिंदी फिल्म में फर्क मालूम है ना ही उनके पास सुनने का समय है. आजकल लोग अक्सर कहते हैं की अब दिल्ली जैसा शहर बहुत फेल गया है और रात को क्रिसमस केरल्स गाने के लिए दूर जाना संभव ना हो. लेकिन रात के 2 और 3 बजे तक होटलों और डिस्को के बाहर गाड़ियों की लम्बी कतार देख कर तो लगता है की बात कुछ और ही है

दिल्ली के मशहूर पादरी जॉन केलैब इसे दूसरी नज़र से देखते हैं. 75 वर्षीय फादर जॉन केलैब कहते हैं कि,``यह सिर्फ क्रिसमस तक ही सीमित नहीं रह गया है हर त्योहार का यही हाल है,'' उनके अनुसार समाज में बदलाव आ रहा हैं तो धर्म और त्यौहार उससे कैसे वंचित रह सकते हैं? ``लेकिन अगर इस सबके बीच कम से कम इंसान एक दूसरे से बात कर ले और आपसी दुख दर्द को बांट ले तो मुझे नहीं लगता की बाज़ार में क्रिसमस मनाने में कोई बुराई है. जमाना बदल रहा है और क्रिसमस भी बदल रहा है,'' फादर जॉन केलैब ने एक अजब मुस्कान के बीच कहा.

रिपोर्ट: नोरिस प्रीतम, नई दिल्ली

संपादन: ओ सिंह