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खतरे भी हैं स्वर्णिम दौर में

१४ मार्च २०१३

अर्थव्यवस्था की सुस्त रफ्तार के बावजूद भारत में मीडिया और मनोरंजन उद्योग तेजी बनाए हुए है. 2017 तक इस उद्योग के दोगुने होने का अनुमान है. लेकिन यह उछाल वाकई में तरक्की है या एक जोखिम भरा रास्ता, इस पर विवाद है.

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तस्वीर: dapd

ग्लोबल कंसल्टेंसी ग्रुप केपीएमजी का अनुमान है कि 2017 तक भारत का मीडिया व मनोरंजन उद्योग 1,661 अरब रुपये का हो जाएगा. बीते साल टीवी सेक्टर में 12.5 फीसदी, प्रिंट में 7.3 फीसदी और फिल्म उद्योग में 21 फीसदी की तेजी देखी गई. विकास के लिहाज से सिनेमा सबसे बड़ा उद्योग बना हुआ है. दूसरे नंबर पर टीवी सेक्टर और तीसरे पर प्रिंट है.

आए दिन खुल रहे स्थानीय चैनलों की वजह से भी टीवी क्षेत्र में तेजी आई है. 2008 की विश्वव्यापी मंदी ने भारत में टीवी चैनलों पर असर डाला था. विज्ञापन कम होने की वजह से उन्हें आर्थिक मुश्किलों का सामना करना पड़ा, लेकिन इसके बावजूद तेजी में ठहराव नहीं आया. केपीएमजी की रिपोर्ट कहती है, "2012 में आर्थिक सुस्ती ने उद्योग पर कड़ी मार की, खास तौर पर विज्ञापन से होने वाली आय के मामले में. लेकिन सकारात्मक बदलावों के कई संकेत इस साल दिखने लगे हैं."

संभावनाएं

फेडरेशन ऑफ इंडियन चैम्बर्स ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री (फिक्की) के साथ मिलकर यह रिपोर्ट जारी की गई है. वरिष्ठ पत्रकार और राज्य सभा सासंद चंदन मित्रा के मुताबिक फिलहाल भारत में फिल्म उद्योग सही ढंग से चल रहा है. पश्चिमी देशों में जहां प्रिंट मीडिया संकट में है वहीं भारत में प्रिंट मीडिया अच्छी प्रगति कर रहा है. कई टीवी चैनल अपने प्रोफाइल पर खरे उतर रहे हैं. मित्रा कहते हैं, "मुझे लगता है कि प्रिंट, इंटरनेट, टीवी और सोशल मीडिया इन सब में अभी हम अगले 10-15 साल तक विकास करते रहेंगे. हम उभरते बाजार हैं. लोगों के पास पैसा आ रहा है, गांव में भी लोगों के पास पैसा पहुंच रहा है. यही वजह है कि मीडिया और मनोरंजन क्षेत्र विकास कर रहा है. इससे नौकरी की संभावनाएं भी पैदा हो रही हैं."

Medienfirmen in Indien
भारत में निवेश करती विदेशी कंपनियांतस्वीर: picture alliance/AP Photo

मित्रा मानते हैं कि बाजार के विकास की वजह से मनोरंजन उद्योग से जुड़े टीवी सेक्टर में फिर से रौनक दिख रहा है. अच्छे कॉन्सेप्ट वाले चैनल बाजार में अपनी हिस्सेदारी संभाल रहे हैं. बाजार के विकास से मीडिया और मनोरंजन क्षेत्र को जो फायदा होगा, उसे क्वालिटी बेहतर करने में लगाया जा सकेगा. मित्रा के मुताबिक कुछ अखबार और दूसरे संस्थान तो ऐसा पहले से ही कर रहे हैं.

होड़ की आशंका

लेकिन ऐसा नहीं कि विकास की बयार में फूल ही फूल खिलें. भारत में करीब 650 टेलीविजन चैनल हैं, इनमें से करीब 200 न्यूज चैनल हैं. आए दिन नए नए चैनल खुलते जा रहे हैं. यही होड़ बुरा हाल भी कर रही है. खासतौर पर न्यूज चैनलों के मामले में. मित्रा कहते हैं, "बहुत ज्यादा चैनल आ गए हैं. प्रतिस्पर्द्धा इतनी बढ़ गई है कि दर्शकों को लुभाने के लिए टीवी में न्यूज और मनोरंजन के बीच अंतर नहीं किया जा रहा है. न्यूज चैनल्स मंनोरंजन दिखाते हैं, टीवी सीरियलों पर उनकी निर्भरता बढ़ती जा रही है. इसीलिए न्यूज चैनलों की विश्वसनीयता, विशेषकर जो भारतीय भाषाओं के चैनल हैं उनकी विश्वसनीयता काफी कम हो गई है. अंग्रेजी के चैनल विश्वसनीय तो हैं लेकिन उन्हें देखने वाले कम हैं, प्रादेशिक भाषाओं की तुलना में. मैं समझता हूं कि स्थानीय भाषा के चैनलों ने एक गलत रवैया अपनाया और उसी से दिक्कत आ रही है."

मीडिया पर आरोप

मीडिया आलोचक व दिल्ली यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर सुधीश पचौरी भी इस तेजी के प्रति आगाह कर रहे हैं, "हम बहुत तेजी और बहुत बदहवासी में मीडिया बना रहे हैं. हमारे पास विशेषज्ञों की एकदम कमी है. हमारे पास दक्ष लोगों की एकदम कमी है. हम पश्चिम के नजरिए से भारत की समस्याओं को देखते हैं. बौद्धिक रूप से भी हम पश्चिम पर निर्भर हो रहे हैं, यानी हम एक किस्म की बौद्धिक गुलामी की ओर जा रहे हैं."

विश्लेषकों को इस बात की चिंता भी सता रही है कि मीडिया लोकतंत्र के स्वतंत्र स्तंभ की तरह काम करने के बजाए सिस्टम को बनाने और बिगाड़ने के खेल में शामिल हो रहा है. पचौरी कहते हैं, "हमारा मीडिया और हमारे मीडिया में रहने वाले लोग एक संभ्रातवाद को बढ़ावा दे रहे हैं. मीडिया के जरिए विचारों को भी नियंत्रित करने की कोशिश की जा रही है. सूचना के विस्फोट के जरिए सिस्टम को चलाने की कोशिश की जा रही है."

हालांकि चंदन मित्रा मानते हैं कि उभरते बाजार में शुरुआत में ऐसी दिक्कतें आती हैं. उन्हें उम्मीद है कि समय के साथ चीजें ठीक जगह पर आ जाएगी.

सोशल मीडिया का क्लिक

बीते तीन-चार साल से सोशल नेटवर्किंग साइट्स भी पारंपरिक मीडिया को चुनौती दे रही हैं. मीडिया जिन मुद्दों तक नहीं जा पा रहा है या जिन विषयों से बचता है उन पर सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर चर्चा हो रही है. ऐसी चर्चाएं एक तरफ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की ओर इशारा करती हैं तो दूसरी तरफ यह चेतावनी भी देती है कि पारंपरिक स्रोत से विश्वसनीय जानकारी न मिलने पर टूटी फूटी सूचनाएं किस ढंग से बाहर आती हैं.

फिक्की के मीडिया व मनोरंजन विभाग के चेयरमैन उदय शंकर की नजर में सहनशीलता की कमी भी चिंता की बात है, "हम उस स्थिति से बहुत ज्यादा दूर नहीं हैं जब टेलीविजन शो के दौरान अगर कोई छींके या खराश भरे तो उसे भी अपराध की जड़ माना जाएगा और लोग उससे भड़क जाएंगे. इसका बुरा असर यह पड़ेगा कि लोकतांत्रिक संस्थान असहिष्णुता को ज्यादा सहने लगेंगे."

कारोबार की वजह से तेज विकास होना और संख्या की वजह से तेजी आना, ये दोनों अलग अलग बातें हैं. वित्त प्रबंधन के सिद्धांत कहते हैं कि मुनाफे के लिए नई कंपनी के जरिए पैसा झोंकने से आने वाली तेजी एक दिन कड़ी होड़ में फंसकर मंदी तक भी पहुंचती है. वहीं अच्छे कारोबार और अच्छी प्रतिष्ठा के जरिए आने वाली तेजी बाजार के सतत विकास में सहायक सिद्ध होती है.

रिपोर्ट: ओंकार सिंह जनौटी

संपादन: महेश झा