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खतरे में है दार्जिलिंग चाय का वजूद

प्रभाकर मणि तिवारी
८ सितम्बर २०१७

दुनिया भर में मशहूर दार्जिलिंग चाय का वजूद खतरे में है. कोलकाता के चाय नीलामी केंद्र में इस सप्ताह दार्जिलिंग चाय के बिना ही नीलामी हुई. देश में सिर्फ इसी आक्शन सेंटर से दार्जिलिंग चाय बिकती है.

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तस्वीर: DIPTENDU DUTTA/AFP/Getty Images

बीते चार दशकों में यह पहला मौका था जब नीलामी के लिए यह चाय उपलब्ध नहीं थी. बीते नौ जून से ही आंदोलन के चलते चाय का उत्पादन बंद है. अब इस साल के बाकी तीन-चार महीनों के दौरान भी इसके मिलने की उम्मीद नहीं है. दूसरी ओर, लंबी बंदी के चलते चाय बागानों में बोनस के मुद्दे पर भी विवाद बढ़ रहा है. अमूमन हर साल मजदूर यूनियनों और प्रबंधन के बीच कई दौर की बातचीत के बाद बोनस की राशि पर सहमति बनती थी. लेकिन तीन महीनों से हड़ताल जारी रहने के कारण कोई बातचीत नहीं हो सकी. बागानों में बोनस का भुगतान प्रबंधन की कानूनी बाध्यता है. ऐसे में, प्रबंधन को डर है कि आगे चल कर यूनियनें इस मुद्दे पर भी विवाद खड़ा कर सकती है.

नीलामी के लिए उपलब्ध नहीं

बीते सप्ताह हुई नीलामी में 4,782 किलो चाय बिकी थी. कलकत्ता टी ट्रेडर्स एसोसिएशन (सीटीटीए) के सचिव जे. कल्याणसुंदरम कहते हैं, "नीलामी केंद्र के पास दार्जिलिंग चाय का स्टाक नहीं है. बीते नौ जून से ही उत्पादन ठप होने की वजह से अब इस साल के बाकी चार महीनों के दौरान भी यह चाय मिलने की उम्मीद कम ही है."

पर्वतीय क्षेत्र के 87 चाय बागानों में दूसरे फ्लश से पैदा होने वाली ज्यादातर चाय का निर्यात जर्मनी, जापान और इंग्लैंड को होता है. बीते सप्ताह की नीलामी में इस चाय को 1,082.61 रुपए प्रति किलो की कीमत मिली जबकि बीते साल इसी समय यह चाय 336.90 रुपए किलो बिकी थी. एक चाय बागान मालिक और दार्जिलिंग टी एसोसिएशन (डीटीए) के पूर्व अध्यक्ष शिवशंकर बागड़िया कहते हैं, "पहाड़ियों में जारी गतिरोध की वजह से दार्जिलिंग चाय को लगभग 450 करोड़ का नुकसान होने की आशंका है." सीटीटीए के अध्यक्ष अंशुमान कानोड़िया कहते हैं, "वित्तीय घाटा तो गोरखालैंड आंदोलन से दार्जिलिंग चाय को होने वाले नुकसान का महज एक पहलू है. सबसे बड़ा नुकसान दार्जिलिंग ब्रांड को हुआ है. विदेशी खरीददारों की निगाह में हम अब भरोसेमंद सप्लायर नहीं रहे."

बोनस अधर में

पर्वतीय क्षेत्र में तीन महीने से जारी बंद की वजह से दुर्गापूजा से पहले मजदूरों को बोनस के भुगतान का मामला भी खटाई में पड़ गया है. इलाके के बागानों में लगभग एक लाख दैनिक मजदूर काम करते हैं. उनमें से 55 हजार मजदूरों को प्रत्यक्ष रोजगार मिला है. मजदूरों को हाजिरी के आधार पर दैनिक मजदूरी दी जाती है और उसी आधार पर बोनस का भुगतान किया जाता है. चाय बागानों मालिकों को अंदेशा है कि तीन महीने की बंदी के दौरान मजदूरी नहीं मिलने की वजह होने वाले घाटे की भरपाई के लिए मजदूर यूनियनें अबकी बोनस के तौर पर मोटी रकम देने की मांग कर सकती हैं. दार्जिलिंग टी एसोसिएशन के अध्यक्ष विनोद मोहन बताते हैं, "बागान बंद होने की वजह से बोनस के मुद्दे पर यूनियनों के साथ बातचीत नहीं शुरू हो सकी है."

कानूनी प्रावधानों के मुताबिक मजदूरों को कुल सालाना मजदूरी का न्यूनतम 8.33 फीसदी बोनस मिलता है. बीते साल पैदावार बेहतर होने की वजह से उनको 20 फीसदी बोनस मिला था. बोनस तय करने के लिए होने वाली तीन पक्षीय बैठक में राज्य सरकार के श्रम विभाग के प्रतिनिधि भी शामिल होते हैं. एसोसिएशन ने बागानों को होने वाले नुकसान की भरपाई और मजदूरों के खर्च के मद में टी बोर्ड के जरिए केंद्रीय वाणिज्य मंत्रालय से भी आर्थिक पैकेज की मांग की है.

डीटीए के पूर्व अध्यक्ष बागड़िया बताते हैं, "मजदूरों को न्यूनतम 8.33 फीसदी की दर से बोनस के भुगतान की स्थिति में भी चाय बागानों पर 20 से 25 करोड़ रुपए का बोझ पड़ेगा." बागान प्रबंधन की दलील है कि असम और डुआर्स इलाके में बागान चलाने वाली कई बड़ी कंपनियां तो वहां से नकद रकम लाकर बोनस का भुगतान कर सकती हैं. लेकिन बाकी बागान इस रकम का इंतजाम कैसे करेंगे? डीटीए महासचिव कौशिक बासु बताते हैं कि बोनस के मुद्दे पर पैदा होने वाली जटिलताओं को सुलझाने के लिए राज्य सरकार को भी एक पत्र भेजा गया है. लेकिन बागानों के दोबारा नहीं खुलने तक बोनस का प्रतिशत तय करना संभव नहीं होगा.

चाय उद्योग से जुड़े सूत्रों को अंदेशा है कि बागानों के खुलने के बाद बोनस के सवाल पर एक बार फिर नया बवाल पैदा हो सकता है. इससे दार्जिलिंग चाय की विश्वव्यापी छवि को और नुकसान पहुंचेगा.