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खतरे में है मिड डे मील योजना

विश्वरत्न श्रीवास्तव१ अप्रैल २०१६

मध्याह्न भोजन राष्ट्रीय योजना को सरकारी स्कूलों में छात्रों की उपस्थिति बढ़ाने का असरदार जरिया माना जाता है. लेकिन मध्य प्रदेश और हरियाणा के आंकड़े दिखाते हैं कि इस के बावजूद छात्रों की उपस्थिति में गिरावट आयी है.

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Indische Kinder beim Essen
तस्वीर: Getty Images/AFP/N. Nanu

मध्याह्न भोजन योजना का उद्देश्य सभी बच्चों को पौष्टिक खाना उपलब्ध कराने के साथ यह भी था कि बच्चे भोजन मिलने की वजह से स्कूल जाने में रुचि दिखाएंगे. भोजन और पढ़ाई को एक साथ जोड़कर देखा गया, किंतु यह पूरा सच नहीं है. सरकारी स्कूलों की शैक्षिक गुणवत्ता में गिरावट के चलते छात्र प्राइवेट स्कूलों की ओर रुख कर रहे हैं. मध्य प्रदेश के स्कूलों में मध्याह्न भोजन को लेकर देश के नियंत्रक-महालेखा परीक्षक यानी कैग की ताजा रिपोर्ट में इसका खुलासा हुआ है.

उपस्थिति में गिरावट

मध्य प्रदेश के स्कूलों में पिछले चार सालों में छात्रों की उपस्थिति में करीब पांच प्रतिशत कमी आयी है. विधानसभा में पेश कैग रिपोर्ट के अनुसार प्राइमरी स्कूलों में 2010-11 के दौरान छात्रों की प्रतिदिन उपस्थिति 80.10 फीसदी थी, जो 2014-15 में घटकर 75.67 प्रतिशत रह गई. इसी तरह मिडिल स्कूलों में 2010-11 में 79.67 प्रतिशत छात्र प्रतिदिन स्कूल आते थे, जो 2014-15 में गिर कर केवल 75 फीसदी रह गई. सरकारी स्कूलों में प्रतिदिन उपस्थिति घटने के साथ नामांकन भी कम होता जा रहा है.

वर्ष 2010-11 में नामांकन 1 करोड़ 11 लाख था, जो 2014-15 में 92 लाख 51 हजार रह गया, जबकि मध्याह्न भोजन योजना का उद्देश्य कमजोर आर्थिक वर्ग के घरों के बच्चों को नियमित रूप से स्कूल आने के लिए प्रेरित करना था. दूसरी ओर प्राइवेट स्कूलों में छात्रों की संख्या में 2011-12 से 2014-15 में 38 प्रतिशत बढ़ी. छात्रों की कमी को लेकर कैग ने पाया कि मुफ्त भोजन की अपेक्षा लोग गुणवत्ता युक्त शिक्षा को प्राथमिकता दे रहे हैं.

क्रियान्वयन पर भी सवाल

कई राज्यों में इस योजना के क्रियान्वयन पर भी सवाल उठ रहे हैं. खासतौर पर भोजन की पौष्टिकता और गुणवत्ता को लेकर छात्रों एवं अभिभावकों में नाराजगी की रिपोर्ट जब तब सामने आती रहती है. कुछ दिनों पूर्व ही झारखण्ड के लुण्ड्रा विकास खण्ड के कोरिमा में मध्याह्न भोजन खाने के बाद 32 बच्चों सहित दो शिक्षकों की हालत खराब होने की खबर आयी थी. मध्याह्न भोजन से छात्रों के बीमार पड़ने की खबरों में कोई भी राज्य पीछे नहीं है. मध्य प्रदेश के कटनी में मध्याह्न भोजन खाने से 5 साल की बच्ची की मौत की खबर भी ज्यादा पुरानी नहीं हैं. ऐसी सैकड़ों खबरें हैं. इसके अलावा छात्रों को भरपेट भोजन नहीं देने की शिकायतें भी आम हैं.

कैग रिपोर्ट में भी क्रियान्वयन को लेकर अपनायी जा रही अनियमितता का उल्लेख किया गया है. हरियाणा पर कैग रिपोर्ट में कहा गया है कि प्रांतीय सरकार खाने की गुणवत्ता की जांच के लिए प्रांतीय सरकार किसी प्रयोगशाला को तय करने में विफल रही है. प्राथमिक शिक्षा अधिकारियों को खाने की जांच के निर्देश दिए गए लेकिन उन्होंने निर्देशों का पालन सुनिश्चित नहीं किया. उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी ने स्कूली शिक्षा की गुणवत्ता और फंड की कमी पर गहरी चिंता व्यक्त करते हुए मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा के अधिकार कानून के बेहतर क्रियान्वयन के लिए मनरेगा की तरह इस कानून का भी विशेष ऑडिट करने की सलाह दी है.

अंग्रेजी स्कूल के प्रति आकर्षण

टैक्सी चालक सुदेश सिंह अपने बच्चों को बेहतर शिक्षा देना चाहते हैं. बेहतर शिक्षा से उनका मतलब अंग्रेजी माध्यम के स्कूल से है. उनकी समझ में उनका बच्चा हिंदी या मराठी माध्यम के स्कूल में पढ़ कर तरक्की नहीं कर सकता. लगभग यही समझ शिक्षित समझे जाने वाले “शिक्षक-समुदाय” की भी है. एक सरकारी स्कूल के शिक्षक नाम ना बताने की शर्त पर कहते हैं कि कोई भी सरकारी शिक्षक अपने बच्चों को सरकारी स्कूल में भर्ती नहीं कराना चाहता है. जो अभिभावक थोड़े सी भी अच्छी आय वाले हैं, उनके बच्चे प्राइवेट अंग्रेजी स्कूलों में ही शिक्षा प्राप्त करते हैं. संपन्न अभिभावक अपने बच्चों को बड़े कॉन्वेंट स्कूलों में भेजना चाहते हैं. अंग्रेजी माध्यम के सरकारी या सरकारी सहायता प्राप्त स्कूल भी ठीक ठाक चल रहे हैं.

सरकारी स्कूलों को लेकर सामान्यतः अभिभावकों के मन में अच्छी धारणा नहीं है. इसके बावजूद आज भी देश में 66 प्रतिशत बच्चे सरकारी या सरकारी अनुदान प्राप्त स्कूलों में पढ़ते है. उदारीकरण और वैश्वीकरण के इस दौर ने भी भारतीय अभिभावकों के मन में अंग्रेजी प्रेम बढ़ाया है. अंग्रेजी शिक्षा को अवसर का पर्याय मानने वाले अभिभावकों के बच्चे हिंदी और क्षेत्रीय भाषी सरकारी स्कूलों से पलायन कर रहे हैं. अभिभावकों की इस मजबूत होती धारणा को बदलने के लिए अब तक सरकार की तरफ से कोई ठोस उपाय नहीं किया गया है.