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खुद को चिढ़ाता जर्मनी

१० जनवरी २०१३

जर्मनी, बिना लेट लतीफी के हर काम वक्त पर पूरा करने वाला देश. जर्मनों को अपनी इस आदत पर गर्व है, लेकिन अब कई परियोजनाएं देश को चिढ़ा रही हैं. काम है कि पूरा ही नहीं हो पा रहा है.

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तस्वीर: AP

जर्मनों को आम तौर पर खूब मेहनती, अनुशासित, समय का पाबंद और तकनीकी मामलों का विशेषज्ञ कहा जाता है. यूरोप में होने वाली किस्सागोई में जर्मनों को दृढ़ निश्चयी कहा जाता है. लेकिन अब जर्मनी में ही बहस होने लगी है कि क्या हम अपनी प्रतिष्ठा से इतर काम कर रहे हैं.

बहस यूं ही नहीं जन्मी है. कई उदाहरण हैं. बर्लिन के सेंट्रल ट्रेन स्टेशन परियोजना की लागत 30 करोड़ यूरो आंकी गई थी, स्टेशन बनते बनते 120 करोड़ यूरो फूंक गए. हैम्बर्ग का एल्बफिलहार्मोनी हॉल तो पूरा बन ही नहीं पा रहा है. श्टुटगार्ट के ट्रेन स्टेशन के नवीनीकरण का काम भी धैर्य का इम्तिहान ले रहा है.

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बर्लिन के नए अंतरराष्ट्रीय एयरपोर्ट पर लंबे समय से काम चल रहा हैतस्वीर: dapd

साल भर से बर्लिन का नया एयरपोर्ट भी बराबर सुर्खियों में है. विली ब्रांट एयरपोर्ट को 2012 में शुरू होना था, लेकिन काम पूरा न हुआ. फिर कहा गया कि 27 अक्टूबर 2013 को एयरपोर्ट चालू हो जाएगा. अब शर्मिंदगी के माहौल के बीच अधिकारियों ने कह दिया है कि एयरपोर्ट 2014 तक ही पूरा हो सकेगा. खर्चा 430 करोड़ यूरो बैठेगा. अनुमान से 50 फीसदी ज्यादा.

बर्लिन एयरपोर्ट के अलावा भी ऐसे कई दूसरे प्रोजेक्ट हैं जो लेट लतीफी का शिकार हो चुके हैं. देरी की वजह से खर्चा बहुत बढ़ चुका है.

गड़बड़ी का गणित

ड्रेज एंड जोमर नाम की इंटरनेशनल बिल्डिंग कंसल्टेंसी एजेंसी के चेयरमैन पेटर टेसलॉक मानते हैं कि ठेकेदारी के नए सिस्टम की वजह से यह समस्या आ रही है. उनके मुताबिक तकनीकी लिहाज से कोई कमी नहीं है. टेसलॉक के मुताबिक बीते कुछ सालों में आयोगों ने बड़ी योजनाओं का ठेका किसी एक संस्था को दिया है. ऐसे में उस संस्था को कई अलग अलग ठेकेदारों के साथ मिलकर काम करना पड़ रहा है. इसमें बहुत जबरदस्त सहयोग नजर नहीं आ रहा है. वह मानते हैं कि एक संस्था को ठेका देने से 30 फीसदी तक पैसा बचता है लेकिन बड़ी योजनाओं में देर सबेर अगर एक भी कमी सामने आती है तो उसे ठीक करने में हालत खस्ता हो जाती है.

जर्मन एसोसिएशन ऑफ कंसल्टिंग इंजीनियर्स के प्रमुख फोल्कर कोर्नेलिउस कई दूसरे कारण भी गिना रहे हैं. उनके मुताबिक काम के बीच में किसी तरह के सुझाव मिलने से खर्चा बढ़ता है और समय भी ज्यादा लगता है, "आपको पता होगा कि निर्माण कंपनियों के पास खर्च को कम करने के लिए कई तरह विकल्प होते हैं."

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2007 से बन रहा हैम्बर्ग का कंसर्ट हॉल अब तक पूरा नहीं हो पायातस्वीर: dapd

ठेका पाने के लिए कंपनियां बहुत कम बोली लगाती हैं. कई बार उस खर्च पर योजना पूरी करना मुमकिन नहीं होता. दूसरी तरफ ठेका देने वालों पर भी दबाव होता है कि वह सबसे कम बोली लगाने वाली कंपनियों की ठेका दें.

नॉएब्रांडेनबुर्ग की यूनिवर्सिटी ऑफ एपलायड साइंसेस के प्रोफेसर फ्रांस जोसेफ श्लाप्का भी कुछ ऐसा ही मानते हैं. उनके मुताबिक निर्माण कंपनियां ठेका पाने के लिए बहुत ही कम कीमत लगाती है, "अगर वह सही कीमत की बोली लगाएंगी तो शायद उनकी बिड खारिज हो जाएगी."

टेसलॉक मानते हैं कि बीच में होने वाले बदलावों की वजह से सिर्फ खर्च ही नहीं बढ़ता है बल्कि दूसरी दिक्कतें भी सामने आती है. मसलन तयशुदा वक्त पर काम पूरा करने के चक्कर में कंपनियां तेजी से निर्माण करती हैं, वह कई बातों को नजरअंदाज करती हैं, लेकिन अंत में इतना छोटा मोटा काम बच जाता है कि उसे ठीक करने में बहुत समय लगता है. कई बार तो छोटी मोटी चीजों के चक्कर में बड़े बदलाव करने पड़ते हैं.

टेसलॉक कहते हैं, "आप बहुत कोशिश करते हैं कि समय पर काम पूरा हो जाए लेकिन कभी कभी यह मुमकिन नहीं होता, तब इसकी वजह से गुणवत्ता पर भी असर पड़ता है."

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मेट्रो की सुरंग बनाते समय एहतियात न बरतने से कोलोन का ऐतिहासिक भवन गिरातस्वीर: AP

देरी अपने साथ हड़बड़ी भी लाती है, जो कभी कभी घातक साबित होती है. 2009 में कोलोन शहर में ऐतिहासिक इमारत ढह गई. दो लोगों की मौत हुई. दरअसल इमारत के नीचे ट्रेन के लिए सुरंग बनाई जा रही थी. ऐसा माना जाता है कि ठेकेदारों ने सुरंग बनाने में घटिया सामग्री का इस्तेमाल किया, जिसकी वजह से जमीन धंस गई.

टेसलॉक स्वीकार करते हैं कि कुछ योजनाओं को भ्रष्टाचार की वजह से भी नुकसान पहुंचा है. हालांकि वह कहते हैं कि जर्मनी में बहुत कम भ्रष्टाचार है और विदेशों तक इसकी आवाज नहीं जाती. यही वजह है कि लेट लतीफी, बढ़ते खर्चे और दुर्घटनाओं के बावजूद विदेशों में जर्मन इंजीनियरिंग की साख अभी अच्छी है.

रिपोर्ट: इंसा व्रेडे/ओएसजे

संपादन: महेश झा

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