1. कंटेंट पर जाएं
  2. मेन्यू पर जाएं
  3. डीडब्ल्यू की अन्य साइट देखें

खून जांच से आत्महत्या संकेत

२५ जनवरी २०१४

जरूरी नहीं कि डिप्रेशन से गुजरने वाला हर व्यक्ति आत्महत्या के बारे में सोचे. लेकिन जो लोग ऐसे तनाव से गुजरते हैं उनके लिए एंटीडिप्रेसेंट जरूरी हो जाते हैं. डर की बात यह है कि ये दवाएं खतरे को और बढ़ा सकती हैं.

https://p.dw.com/p/1AwvY
तस्वीर: Fotolia/ lassedesignen

कुछ दिनों पहले सुनंदा पुष्कर थरूर की अचानक मौत ने एक बार फिर डिप्रेशन के खतरों को उजागर किया. सुनंदा ने आत्महत्या की या नहीं, यह तो अब तक साफ नहीं हो पाया है. पर इतना जरूर पता है कि उन्होंने एंटीडिप्रेसेंट लिए जो उनके लिए जहर बन गए. सुनंदा तनाव से गुजर रही थीं. शायद उन्होंने अपनी जान लेने के बारे में भी सोचा. लाखों लोग हर दिन इस कशमकश से गुजरते हैं. विश्व स्वास्थ्य संगठन के आंकड़े बताते हैं कि दुनिया भर में कम से कम 35 करोड़ लोग डिप्रेशन का शिकार हैं.

ऐसे लोगों की मदद के लिए इंटरनेट पर कई फोरम तैयार किए गए हैं. अक्सर यहां लोगों को जिंदगी से शिकायत करते देखा जाता है. "मुझे समझ नहीं आ रहा कि क्या करूं, मुझे और कोई रास्ता दिखाई नहीं दे रहा, मैं अपनी जान ले लूंगा." कई लोगों को इन फोरम पर इस तरह की बातें लिखते देखा जाता है. इनमें से कुछ लोग अपने जीवन से निराश हैं तो कई ऐसे हैं जो लंबी बीमारी से थक चुके हैं. डॉक्टर इन्हें एंटीडिप्रेसेंट लेने का सुझाव देते हैं. लेकिन ये भी खतरे से खाली नहीं.

एंटीडिप्रेसेंट से खतरा

2005 से अमेरिका, कनाडा और यूरोप के कई देशों में बिकने वाली एंटीडिप्रेसेंट दवाओं पर चेतावनी छापी जा रही हैः "इन्हें लेने वालों पर आत्महत्या का खतरा अधिक है." एंटीडिप्रेसेंट का मकसद है व्यक्ति को उदासी से निकालना, उसे अच्छा महसूस कराना. लेकिन ऐसा होने में वक्त लगता है. पर शुरुआती दौर में ही दवा इंसान को आवेगी बना देती है. ऐसे में अगर बार बार खुदकुशी के बारे में सोचा जाए, तो दवा के असर में ऐसा कर भी लिया जाता है.

Symbolbild Sucht Drogen Tabletten Pillen Tablettensucht
एंटीडिप्रेसेंट इंसान को आवेगी बना देती है.तस्वीर: picture alliance/dpa

म्यूनिख में माक्स प्लांक इंस्टीट्यूट के आंद्रेआस मेंके को यह ख्याल आया कि क्या आत्महत्या करने के खतरे को नापा नहीं जा सकता. इसके लिए उन्होंने अपनी टीम के साथ मिल कर 400 लोगों पर टेस्ट किए. इन सभी को एंटीडिप्रेसेंट दिए जा रहे थे. 12 हफ्तों तक इन पर नजर रखी गयी. कुछ लोगों को ना तो टेस्ट शुरू होने से पहले और ना ही उसके दौरान खुदकुशी का ख्याल आया. लेकिन कई ऐसे भी थे जिन्होंने अचानक ही आवेश में आ कर कुछ करना चाहा. मेंके बताते हैं, "ज्यादातर लोग अपने ही ख्यालों से डर जाते हैं और वे उस पर खुल कर बात भी करते हैं.

जीन संरचना में बदलाव

इन लोगों के खून की जांच की गयी और जीन संरचना में बदलाव दर्ज किए गए. मेंके बताते हैं, "हमने 100 अलग अलग मानक देखे और दोनों तरह के मरीजों में उनकी तुलना की. जांच के बाद हम 90 फीसदी निश्चितता के साथ बता सकते हैं कि किस मरीज को एंटीडिप्रेसेंट लेने के बाद खुदकुशी के ख्याल आते हैं और किसे नहीं."

मेंके चाहते हैं कि मनोचिकित्सक मरीजों को दवा देने से पहले इस तरह के टेस्ट कर के सुनिश्चित कर लें किस व्यक्ति पर किस दवा का कैसा असर हो सकता है. वह बताते हैं कि अमेरिकी कंपनियां इसमें काफी रुचि दिखा रही हैं. अगर तीसरे चरण के टेस्ट सफल रहते हैं तो इसे बाजार में लाया जा सकेगा. मेंके चाहते हैं कि डिप्रेशन का शिकार हर व्यक्ति इस तरह के टेस्ट का लाभ उठा सके.

साथ ही डॉक्टरों को भी इलाज करने में आसानी होगी, "उन्हें इस तरह के मरीजों पर ज्यादा ध्यान देना होगा. या तो वे जांच के लिए उन्हें बार बार अस्पताल बुलाते रहें या फिर उन्हें भर्ती कर लें ताकि उन पर नजर रखी जा सके." मेंके का सुझाव है कि बिना डॉक्टर से पूछे दवा लेना ना छोड़ें. टेस्ट के नतीजों के अनुसार डॉक्टर को खुद तय करने दें कि किस तरह का इलाज या थेरेपी मरीज के लिए जरूरी है.

रिपोर्ट: हाना फुख्स/ईशा भाटिया

संपादन: महेश झा

इस विषय पर और जानकारी को स्किप करें

इस विषय पर और जानकारी