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खेल में तकनीकः जबरन या जरूरत

१७ जून २०१४

तकनीक विवाद लेकर चलती है. पिछले वर्ल्ड कप में तकनीक की गैरमौजूदगी में एक गोल न होने पर विवाद हुआ और इस बार गोल लाइन तकनीक से दिए गए गोल से विवाद हो गया.

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तस्वीर: picture-alliance/dpa

होंडुरास के खिलाफ फ्रांसीसी स्ट्राइकर करीम बेंजिमा के लेफ्ट फुटर ने फुटबॉल को गोलपोस्ट पर मारा. फिर गेंद छिटक कर गोलकीपर के हाथ से टकराई और जब तक लोग कुछ समझ पाते, रेफरी ने गोल का एलान कर दिया. कमेंट्री बॉक्स में बैठे कमेंटेटर हक्का बक्का रह गए. अमेरिका के मशहूर गोलकीपर रह चुके केसे केलर ने कहा, "बार बार रीप्ले देख कर भी मैं पक्के तौर पर नहीं कह सकता." इंग्लैंड के महान फुटबॉलर गैरी लीनेकर ने कहा, "क्या उन्होंने गोल बना दिया है?"

सवाल यह है कि जब बार बार रीप्ले देख कर भी कमेंटेटरों को गोल होने न होने का पता नहीं चल पाया, फिर ब्राजीली रेफरी सांड्रो मियेरा इतना श्योर कैसे थे. उन्हें गोललाइन तकनीक ने मदद दी. पहली बार विश्व कप में इस तकनीक को लगाया गया है. इसमें दोनों गोलपोस्ट के पास सात सात कैमरे तैनात रहते हैं, जो हर पल फुटबॉल की फोटो लेते रहते हैं. हर कैमरा हर सेकंड में 500 तस्वीरें उतारता है. गेंद जैसे ही गोलपोस्ट के 30 सेंटीमीटर के दायरे में आती है, कैमरे सक्रिय हो जाते हैं. गोल होते ही रेफरी के हाथ में बंधी खास घड़ी वाइब्रेट करके गोल का संकेत दे देती है. होंडुरास और फ्रांस के मुकाबले में भी ऐसा ही हुआ.

फुटबॉल में रेफरी कई बार मानवीय भूल कर बैठते हैं. एक मिसाल पिछले वर्ल्ड कप की है, जब इंग्लैंड के फ्रैंक लैम्पार्ड ने जर्मनी के खिलाफ गोल किया और रेफरी उसे देख नहीं पाया. इंग्लैंड मैच हार गया और खूब विवाद हुआ. इसके बाद जर्मन कंपनी कैरोस ने गोललाइन तकनीक डेवलप की, जो गेंद में लगे चिप को सेंसर की मदद से कैमरों से जोड़ता है और गेंद की हर हरकत के हजारों फ्रेम तैयार करता है.

यह क्रिकेट या टेनिस में इस्तेमाल होने वाले हॉक आई की तरह है. जरा याद कीजिए कि जब क्रिकेट में हॉक आई का इस्तेमाल पहली बार हुआ, तो कितनी हाय तौबा मची थी. पर इसकी वजह से अंपायरों की मानवीय भूल को काफी हद तक कम किया जा सका है. टेनिस में भी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इसका चलन है.

WM 2010 Engalnd Deutschland
2010 वर्ल्ड कप का विवादित गोलतस्वीर: picture-alliance/dpa

लेकिन वर्ल्ड कप वाले मैच में गोल को लेकर कंफ्यूजन कहां थी. इसके लिए फुटबॉल में गोल की परिभाषा समझनी होगी और इसे क्रिकेट और टेनिस से अलग करना होगा. अंतरराष्ट्रीय फुटबॉल संघ फीफा का नियम नंबर 10 कहता है, "जब पूरी गेंद गोलपोस्ट और क्रॉसबार के बीच बनी गोललाइन को पार कर जाती है, तो इसे गोल माना जाता है. बशर्ते कि इस क्रम में किसी और नियम का उल्लंघन न हुआ हो." अगर परिभाषा दोबारा ध्यान से पढ़ें, तो समझ आता है कि इसमें गेंद के जमीन या जाल छूने का कोई जिक्र नहीं है. यानि कि अगर गेंद हवा में रहते हुए भी गोललाइन पार कर जाती है, तो भी गोल माना जाएगा, भले ही वह हवा में ही रहे. होंडुरास के मामले में कुछ ऐसा ही हुआ, जब गेंद गोलकीपर को छू कर अंदर गई और वह गेंद को जमीन पर गिरने से पहले ही उसे बाहर खींच लाया.

क्रिकेट के नियम इससे अलग हैं. चौके या छक्के के लिए गेंद को बाउंड्री से बाहर जाना होता है और उसे जमीन छूनी होती है. या फिर अगर खिलाड़ी कैच लेते हुए बाउंड्री पार कर जाए, तो क्रिकेटर आउट नहीं माना जाता क्योंकि कैच लेने वाले खिलाड़ी का कनेक्शन जमीन से बना हुआ है. टेनिस में नियम जरा अलग है, जिसमें गेंद का कोई भी हिस्सा, चाहे वह छोटे से छोटा ही क्यों न हो, अगर लाइन को टच करता है, तो उसे कोर्ट के अंदर माना जाता है. फुटबॉल में गोल के लिए पूरी गेंद को गोललाइन पार करनी होती है.

इलेक्ट्रॉनिक अंपायर

कमेंटेटरों ने रीप्ले में भी शायद पूरी गेंद को पार होते या जमीन छूते नहीं देखा और तभी उन्हें ताज्जुब हुआ कि गोल कैसे दिया गया. लेकिन तकनीकी दृष्टि से यह बिलकुल सही है. तभी तो गोललाइन तकनीक ने अपने वीडियो को दो हिस्सों में बांटा, जिसमें बेंजिमा के शॉट को गोलपोस्ट में लगने पर उसे गोल नहीं दिया गया. यानी यह गोल गोलकीपर के खाते में हुआ सेल्फ गोल था, बेंजिमा का नहीं.

चूंकि तकनीक विवाद लाती है, लिहाजा इस गोल पर भी बहस होगी. इसे अच्छा या बुरा कहा जाएगा. लेकिन अहम मैचों में इसका फायदा जरूर दिखेगा और यह रेफरी के मानवीय भूल की संभावना को कम करेगा.