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गोरखालैंड आंदोलन से सूखी दार्जिलिंग चाय की हरियाली

प्रभाकर मणि तिवारी
७ जुलाई २०१७

दार्जिलिंग पर्वतीय क्षेत्र में बीते लगभग एक महीने से अलग राज्य की मांग में जारी आंदोलन के दौरान होने वाली हिंसा और बेमियादी बंद के चलते दुनिया भर में मशहूर दार्जिलिंग चाय के पत्तों की हरियाली सूख रही है.

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Darjeeling Tee
तस्वीर: DW/P. Mani Tewari

पश्चिम बंगाल के दार्जिलिंग इलाके के चाय बागानों में नौ जून से ही कामकाज ठप पड़ा है जबकि यह पत्तियों को चुनने का समय है. इसी सीजन के दौरान दूसरे फ्लश में चुनी गयी पत्तियां देशी विदेशी बाजारों में महंगे दामों पर बिकती हैं. इस पर्वतीय इलाके की अर्थव्यवस्था पर्यटन व चाय उद्योग पर ही टिकी है. लेकिन महीने भर से जारी आंदोलन और बेमियादी बंद की वजह से पर्यटन उद्योग तो चौपट हो ही गया है, चाय उद्योग की कमर भी टूटने लगी है. मोटे अनुमान के मुताबिक, अब तक इस उद्योग को लगभग साढ़े तीन सौ करोड़ की चपत लग चुकी है.

कैसे हुई शुरूआत

जून के दूसरे सप्ताह में चाय बागान यूनियनों ने मजदूरी में वृद्धि समेत कई अन्य मांगों के समर्थन में दो-दिवसीय हड़ताल की थी. उसके बाद गोरखा जनमुक्ति मोर्चा की ओर से शुरू हुई बेमियादी बंद में पहली बार चाय बागानों को भी शामिल कर लिया गया. अब तक इलाके में होने वाले आंदोलनों और बंद से इस उद्योग को छूट दी जाती रही है. लेकिन इस बार ऐसा नहीं हुआ. गोरखा मोर्चा के महासचिव रोशन गिरि कहते हैं, "यह पूरे पहाड़ के लोगों की पहचान का सवाल है. एक बड़े मकसद के लिए होने वाले आंदोलन में चाय उद्योग को कुछ करोड़ रुपए का नुकसान क्या मायने रखता है?" वह कहते हैं कि अलग गोरखालैंड नहीं बनने तक इलाके की चाय बाहर नहीं भेजने दी जाएगी.

Indien Darjeeling - Aktivisten setzen Polizeifahrzeug in Brand
तस्वीर: UNI

डॉक्टर ए कैंपबैल ने वर्ष 1845 में इलाके में परीक्षण के तौर पर चाय के पत्तों की नर्सरी शुरू की थी. उसके बाद इलाके की मुफीद जलवायु के चलते धीरे धीरे अंग्रेजों ने इलाके में चाय बागानों का जाल बिछा दिया. देश के विभाजन के समय इन बागानों का मालिकाना हक भारतीयों को मिला. उस समय इलाके में सौ से ज्यादा चाय बागान थे. लेकिन अब कई बागान बंद हो चुके हैं. फिलहाल यहां 87 बागान हैं और उनमें हर साल करीब 1 करोड़ किलो चाय पैदा होती है. गोरखालैंड आंदोलन की वजह से इस उद्योग पर आए संकट से अब निर्यात में गिरावट और समय पर डिलीवरी नहीं देने का खतरा मंडराने लगा है.

इस समस्या से निपटने के लिए जून के दूसरे सप्ताह में बागान मालिकों के एक दो-सदस्यीय प्रतिनिधिमंडल ने दिल्ली जाकर स्थानीय भाजपा सांसद एसएस अहलुवालिया से मुलाकात की थी. उन्होंने अहलुवालिया से इस संकट से निपटने का रास्ता तलाशने की अपील की थी ताकि बागानों में कामकाज दोबारा शुरू हो सके. बागान प्रबंधनों में इस मुद्दे पर मजदूर यूनियनों से भी बातचीत की गयी. लेकिन पर्वतीय क्षेत्र की ज्यादातर यूनियनों पर गोरखा मोर्चा से जुड़े संगठन का कब्जा होने की वजह से गतिरोध जस का तस रहा.

गहराता संकट

दार्जिलिंग टी एसोसिएशन (डीटीए) के प्रमुख सलाहकार संदीप मुखर्जी कहते हैं, "गोरखा मोर्चा के आंदोलन से इलाके के सबसे बेहतरीन उत्पाद की असमय मौत हो रही है. बागानों में काम जारी रहने देना चाहिए था." मुखर्जी बताते हैं कि मौजूदा गतिरोध से पूरी दुनिया में दार्जिलिंग चाय का निर्यात काफी प्रभावित होगा. उनका कहना है कि करीब महीने भर से पत्ते चुनने का काम बंद है. इससे घास फूस बढ़ने की वजह से कीड़ों के हमले का खतरा है. अहलुवालिया से मुलाकात करने वालों में शामिल इंडियन टी एसोसिएशन के महासचिव अरिजित राह बताते हैं, "हमने स्थानीय सांसद को समस्या की गंभीरता और इसके दूरगामी नतीजों से अवगत करा दिया है. हमने उनसे स्थानीय गोरखा मोर्चा नेतृत्व से बात करने का अनुरोध किया है."

बंगाल में सबसे ज्यादा चाय पैदा करने वाली गुडरिक कंपनी के प्रबंध निदेशक व मुख्य कार्यकारी अधिकारी एएन सिंह कहते हैं, "चाय बागान मजदूरों का आंदोलन में शामिल होना दुर्भाग्यपूर्ण है. इससे चाय उद्योग को भारी नुकसान तो होगा ही, दुनिया भर में दार्जिलिंग चाय की साख पर भी बट्टा लगेगा." उन्होंने कहा कि इससे बोनस और वेतनमान संशोधन जैसे मुद्दे भी प्रभावित होंगे. डीटीए का कहना है कि अब तक इलाके के बागानों को 11 फीसदी राजस्व और 40 फीसदी निर्यात का नुकसान हो चुका है. उसका कहना है कि दार्जिलिंग के बागानों को होने वाले इस नुकसान का फायदा श्रीलंका के चाय उद्योग को मिलेगा.

एक चाय बागान मालिक शिराज सेन कहते हैं, "आंकड़ों के लिहाज से यहां पैदा होने वाली चाय की खास अहमियत नहीं है. लेकिन यहां सवाल आंकड़ों नहीं, वैश्विक पहचान और ब्रांड का है. अहम बात यह है कि यहां पैदा होने वाली 70 फीसदी चाय आर्गेनिक है और इसके स्वाद और खूशबू को पूरी दुनिया के चाय प्रेमी बेहद पसंद करते हैं." डीटीए के अध्यक्ष विनोद मोहन कहते हैं, "अब तक जो नुकसान हो चुका है उसकी भरपाई असंभव है. यह बीते पांच दशकों में इस उद्योग को होने वाला सबसे बड़ा नुकसान है."

दूसरी ओर, रेटिंग एजेंसी इकरा (ICRA) ने भी चेतावनी दी है कि अगर राजनीतिक संकट लंबा चला तो चाय उद्योग को भारी नुकसान होने का अंदेशा है. इकरा के उपाध्यक्ष कौशिक दास कहते हैं, "इलाके के बागानों में साल में पांच बार पत्तियां चुनी जाती हैं. इसे उद्योग की भाषा में फ्लश कहा जाता है. इनमें जून के पहले सप्ताह से जुलाई के पहले सप्ताह के दौरान होने वाला दूसरा फ्लश सबसे अहम है. इसी दौरान चुनी गई पत्तियों से बनी चाय दुनिया भर में निर्यात की जाती है."

समाधान की कवायद

दार्जिलिंग चाय पर लग रहे बट्टे को ध्यान में रखते हुए अब टी बोर्ड सक्रिय हो गया है. बोर्ड ने इस संकट से निपटने के उपाय तलाशने के लिए अगले सप्ताह कोलकाता में चाय कंपनियों की एक आपात बैठक बुलाई है. बोर्ड ने केंद्रीय वाणिज्य मंत्रालय और राज्य सरकार को अलग अलग पत्र भेज कर स्थिति की गंभीरता से अवगत कराया है. बोर्ड के उपाध्यक्ष एस सारंगी ने राज्य सरकार से चाय बागानों में कामकाज दोबारा शुरू करने के उपायों पर सुझाव भी मांगा है. चाय उद्योग का अनुमान है कि अब तक 16 लाख किलो चाय का नुकसान हो चुका है. उद्योग ने टी बोर्ड से इस आर्थिक नुकसान की भरपाई के लिए सब्सिडी देने की अपील की है, लेकिन सारंगी कहते हैं, "चाय बागानों को सब्सिडी देने की कोई मिसाल नहीं है. लेकिन बोर्ड उद्योग को यथासंभव सहायता देने के लिए तैयार है. लेकिन बावजूद इसके डीटीए का कहना है कि इस आंदोलन से चाय उद्योग की कमर टूट गई है."

चाय उद्योग के सूत्रों का कहना है कि गोरखा मोर्चा और राज्य सरकार में से कोई भी अपने रवैये में बदलाव के लिए तैयार नहीं है. ऐसे में आंदोलन लंबा खिंचने के आसार है. इस संकट से निपटने के लिए टी बोर्ड, राज्य सरकार और केंद्र को मिल कर कोई ठोस उपाय तलाशना होगा. ऐसा नहीं हुआ तो चाय के पत्तों की रही-सही हरियाली के भी पीले पड़ने के आसार है.