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ग्वालियर के दिग्गज लक्ष्मण पंडित

२६ जुलाई २०१४

हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत में ग्वालियर घराना अन्य सभी घरानों की गंगोत्री माना जाता है. इस घराने की गायनशैली की शुरुआत 19वीं शताब्दी में हद्दू खां, हस्सू खां और नत्थू खां नाम के तीन भाइयों ने की थी.

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तस्वीर: DW/K. Kumar

इनके शिष्य शंकर पंडित और उनके पुत्र कृष्णराव शंकर पंडित अपने समय के दिग्गज गायकों में थे. कृष्णराव शंकर पंडित के पुत्र लक्ष्मण कृष्णराव पंडित ने भी अपने पिता और दादा की तरह गायन के क्षेत्र में खूब नाम कमाया. संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार समेत अनेक सम्मानों से अलंकृत एल. के. पंडित इस साल 5 मार्च को 80 वर्ष के हो गए. इन्दिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र ने 24 जुलाई को उनके सम्मान में एक समारोह का आयोजन किया जिसमें उनकी विशिष्ट रिकॉर्डिंग्स के दो डीवीडी जारी किए गए और उन्होंने उपस्थित श्रोताओं को जयदेव की अष्टपदी, टप्पख्याल, त्रिवट जैसे कुछ दुर्लभ गाने के प्रकार गाकर सुनाए. कार्यक्रम के बाद हुई बातचीत के कुछ अंश:

ग्वालियर घराने की गायकी को सम्पूर्ण गायकी यानि अष्टांग गायकी कहा जाता है. इसका अर्थ क्या है?

ग्वालियर गायकी खुले गले की गायकी है जिसमें आवाज को स्वाभाविक ढंग से लगाया जाता है. आपने सही कहा कि इसे सम्पूर्ण गायकी माना जाता है क्योंकि इसमें आठों अंगों का इस्तेमाल किया जाता है. ये हैं आलाप-बहलावा, बोलआलाप, तान, बोलतान, मींड़, गमक, लयकारी और मुरकी-खटका-जमजमा. हमारे घराने में बंदिश पर बहुत जोर दिया जाता है.

आपके घराने में शिष्य को किस तरह से सिखाते हैं? आपने कैसे सीखा और सिखाया?

मुझे मेरे पिताजी ने, जो मेरे गुरु भी थे, हर राग में अनेक बंदिशें सिखाईं. राग बंदिश में ही खिलता है और हर बंदिश में उसके एक खास पहलू के दर्शन होते हैं. इसलिए राग की संपूर्णता अनेक बंदिशों के माध्यम से ही उभर कर आती है. बंदिश को चीज भी कहते हैं.

आपका बचपन तो ग्वालियर में ही गुजरा और बाद में आपने दिल्ली आकर पहले आकाशवाणी में काम किया और फिर दिल्ली विश्वविद्यालय के संगीत विभाग में पढ़ाया. ग्वालियर के माहौल के बारे में कुछ बताइये.

उस जमाने की तो बात ही कुछ और थी. ग्वालियर संगीत का गढ़ था. कहा जाता था कि ग्वालियर में बच्चा अगर रोता है तो सुर में ही रोता है. हर समय गाने-बजाने का माहौल था. घरों में महफिलें होती रहती थीं. हर सप्ताह बृहस्पतिवार को हमारे शंकर गांधर्व महाविद्यालय में छात्रों को सार्वजनिक रूप से गाकर दिखाना पड़ता था कि उन्होंने क्या सीखा. वहां उस समय एक-से-बढ़कर एक कलाकार भी थे जो इन साप्ताहिक कार्यक्रमों में हिस्सा लेते थे. उन्हें सुनना स्वयं एक बड़ी शिक्षा थी.

आपके पिता तो अपने समय के दिग्गज गायक थे. उनके अलावा आपने किन बड़े कलाकारों को सुना और आप किनसे प्रभावित हुए?

किस-किस का नाम लूं? मेरे पिताजी के चाचा एकनाथ पंडित भी मेरे दादा जी शंकर पंडित की तरह बहुत बड़े गायक थे. उनके अलावा रामकृष्ण बुआ वझे, रजबअली खां, पर्वत सिंह पखावजिये, हाफिज अली खां (सरोदवादक अमजद अली खां के पिता), भाऊ साहब गुरुजी, भैया साहब अष्टेवाले और न जाने कितने महान कलाकारों को मैंने अपने शुरुआती सालों में सुना. हमारे यहां बाहर से भी अक्सर बड़े कलाकार आते थे और हमारे घर में ही ठहरते थे. मेरी दादी बताती थीं कि 1892 में एक बार स्वामी विवेकानंद भी हमारे घर आए थे और उन्होंने मेरे दादा शंकर पंडित और उनके भाई एकनाथ पंडित के साथ पखावज पर संगत की थी.

आपकी पहली सार्वजनिक प्रस्तुति जिसकी आपको याद हो?

पहली उल्लेखनीय प्रस्तुति तो जालंधर के मशहूर हरिवल्लभ संगीत समारोह में हुई. मेरा गाना सुनने के बाद नब्बे साल के एक सज्जन जिन्होंने मेरा नाम नहीं सुना था, मेरे पास आए और बोले कि तुम तो कृष्णराव शंकर पंडित की गायकी गाते हो. उनका यह कहना मेरे लिए सबसे बड़ा पुरस्कार था.

आपने आज एक बंदिश की ठुमरी सुनाई. जहां तक मुझे याद है, आपके पिताजी ठुमरी नहीं गाते थे. क्या आपने इसकी शुरुआत की?

आपकी बात ठीक है. मेरे पिता कृष्णराव शंकर पंडित अक्सर सार्वजनिक कार्यक्रमों में ठुमरी नहीं गाते थे. लेकिन मेरे दादा शंकर पंडित और उनके भाई एकनाथ पंडित की तरह ही वे भी ठुमरी गायन में पूरी तरह से दक्ष थे और कभी-कभी ठुमरी भी गाते थे. उन्हें अनेक ठुमरियां याद थीं. मेरे दादाजी की ‘कृष्णमुरारी' ठुमरी बहुत प्रसिद्ध है. पिताजी के पास तो कई छात्र सिर्फ ठुमरी सीखने ही आते थे. मुझे अभी भी एक बंगाली सज्जन की याद है जो सिर्फ ठुमरी सीखते थे. एक बार सागर विश्वविद्यालय में पिताजी का कार्यक्रम था. वहां उनका अभूतपूर्व स्वागत हुआ. युवाओं को देखकर उस दिन उन्होंने केवल ठुमरी ही गायी.

इस समय शास्त्रीय संगीत की क्या हालत है?

हर समय एक सा नहीं रहता. अभी तो ढलान पर ही लग रहा है.

इंटरव्यू: कुलदीप कुमार

संपादन: आभा मोंढे