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घटिया फिल्मों से बने फिल्मकार मणिरत्नम

६ नवम्बर २०१२

रोजा, बॉम्बे और दिल से जैसी मशहूर फिल्मों के निर्देशक मणिरत्नम की फिल्मों में आने की कोई खास इच्छा ही नहीं थी. इसके बावजूद आज उनके नाम कई हिट फिल्में हैं और झोली में कई अवार्ड.

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तस्वीर: ALBERTO PIZZOLI/AFP/Getty Images

एक बार शुरू करने के बाद मणिरत्नम ने पीछे मुडकर नहीं देखा और तमाम दक्षिण भारतीय भाषाओं के अलावा हिन्दी में फिल्में बनाईं. उनको लोकप्रियता मौन रागम फिल्म से मिली. यह फिल्म नव विवाहित जोड़े को लेकर बनाई गई थी जिसे लोगों ने काफी पसंद किया था. मणिरत्नम ने कला और व्यावसायिक फिल्मों के बीच एक बेहतरीन संतुलन भी कायम किया है. कमल हसन अभिनीत उनकी तमिल फिल्म नायकन टाइम पत्रिका की सौ सर्वकालीन सर्वश्रेष्ठ फिल्मों की सूची में शामिल है. देश ही नहीं बल्कि विदेशों में भी उनका नाम पहली कतार के फिल्मकारों में शुमार है. पेश हैं मणिरत्नम की डॉयचे वेले से बातचीत के कुछ अंश.

आप फिल्मों में कैसे आए ?

यह महज एक संयोग या हादसा था. तमिल फिल्मों की घटिया क्वालिटी मुझे इस क्षेत्र में ले आई. उन दिनों अगर काफी तादाद में बेहतरीन फिल्में बन रहीं होती तो मैं फिल्मकार बनता ही नहीं. अब भी मेरी सोच यही है. मैंने कभी सोचा तक नहीं था कि किसी दिन मैं फिल्म की पटकथा लिखूंगा और आगे चल कर उनका निर्देशन करूंगा. सिनेमा में मेरी दिलचस्पी जरूर थी. लेकिन महज एक दर्शक के तौर पर. मैंने कभी सिनेमा को करियर बनाने की कल्पना तक नहीं की थी.

तमिल फिल्मों का वह दौर कैसा था ?

तमिल सिनेमा के लिए वह ठहराव और दोहराव का दौर था. बालाचंदर और महेंद्र जैसे निर्माता-निर्देशकों के अलावा फिल्में देखने लायक नहीं थी. उनका स्तर बेहद खराब था. उस समय की ज्यादातर फिल्मों को देख कर लगता था कि अरे, इससे बेहतर फिल्म तो मैं बना सकता हूं. भले ही मुझे तब तक सिनेमा की ए, बी, सी, डी तक नहीं पता थी.

तो शुरूआत कैसे हुई ?

मेरे मित्र रविशंकर वर्ष 1979 में एक कन्नड़ फिल्म पल्लवी अनु पल्लवी बना रहे थे. उनके आग्रह पर मैंने पटकथा लिखने और निर्देशन में सहायता की. तब तक मैं लेखन के नाम पर महज अपने पिता को पैसे मंगाने के लिए पत्र ही लिखता था. लेकिन पटकथा लिखने के बाद मेरा उत्साह बढ़ा और मैंने आगे भी पटकथाएं लिखने और फिल्मों का निर्देशन करने का फैसला किया. वैसे तो मैंने एमबीए किया था और एक प्रबंधकीय सलाहकार के तौर पर अच्छी-खासी नौकरी कर रहा था. लेकिन कन्नड़ फिल्म के पटकथा लेखन और निर्देशन ने मेरे जीवन की दिशा ही बदल दी.

कला और व्यावसायिक फिल्मों के प्रति आपका क्या नजरिया है ?

पारंपरिक फिल्मों के प्रति मेरे मन में कोई दुर्भावना नहीं है. किसी भी फिल्म की योजना बनाते समय मैं अपने आप से पहला सवाल पूछता हूं कि आखिर मैं करना क्या चाहता हूं. मुझे लगता है कि फिल्म ऐसी होनी चाहिए जो मुझे पसंद आए और जिसे लोग गंभीरता से लें. इसके प्रति आश्वस्त होने के बाद फिल्म धीरे-धीरे मूर्त रूप लेने लगती है.

आप खुद को किस रूप में देखते हैं. एक कलाकार या दर्शकों का मनोरंजन करने वाला फिल्मकार ?

दोनों के मिले-जुले स्वरूप के तौर पर. मुझे लगता है कि फिल्म ऐसी बननी चाहिए कि मैं उसे गर्व के साथ दर्शकों के सामने पेश कर सकूं. यह कौन कहता है कि बेहतर फिल्में मनोरंजक नहीं हो सकतीं.

निर्देशन का अब तक अनुभव कैसा रहा है ?

बहुत बढ़िया. यह बेहद संतोषजनक काम है. मैं कभी किसी कलाकार पर अपनी मर्जी नहीं थोपता. हम लोग मिल कर एक-एक दृश्य के बारे में विस्तार से चर्चा करते हैं ताकि उसे जीवंत बनाया जा सके. मैं तमाम कलाकारों के साथ इस बारे में विचार-विमर्श करता हूं. उसके बाद संबंधित किरदार में जान फूंकने का जिम्मा कलाकारों पर छोड़ देता हूं. इसकी वजह से कलाकार उस किरदार को सजीव बनाने के लिए अपना सर्वश्रेष्ठ झोंक देते हैं.

आपकी ज्यादातर फिल्में लीक से हट कर रही हैं. क्या आप फिल्मों के जरिए कोई संदेश देने का प्रयास करते हैं ?

मैं संदेश देने के लिए फिल्में नहीं बनाता. फिल्में अपना अनुभव या किसी खास मुद्दे पर समाज के एक बड़े तबके के साथ अपनी चिंताएं साझा करने का जरिया हैं. शुरूआती पटकथा में कोई राजनीतिक विचारधारा रहती भी है तो फिल्म के आगे बढ़ने के साथ-साथ वह खुद खत्म हो जाती है. फिल्म में उतना ही बच जाता है जितना कहानी की मांग के हिसाब से स्वाभाविक लगता है.

इंटरव्यूः प्रभाकर, कोलकाता

संपादनः आभा मोंढे