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चाय पर नहीं, यहां नाश्ते पर होती है चर्चा

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ईशा भाटिया सानन
३ जुलाई २०१५

जर्मनी में हर साल एक बार दुनिया भर के नोबेल पुरस्कार विजेताओं की बैठक होती है. सैकड़ों युवा रिसर्चर भी यहां पहुंचते हैं और अपने अपने हीरो के साथ बैठ नाश्ते पर चर्चा करते हैं. शिक्षा के लिए यह एक बेहतरीन मॉडल हो सकता है.

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Deutschland Lindau Tagung der Nobelpreisträger
तस्वीर: DW/A. Islam

इस बार दुनिया भर से 650 युवा रिसर्चर लिंडाऊ पहुंचे. इन रिसर्चरों के लिए एक हफ्ते तक चलने वाली यह मीटिंग एक मौका है अपने अपने हीरो से मिलने का, उन शख्सियतों के साथ बैठ कर चर्चा करने का, जिनके नाम वे किताबों में पढ़ते आए हैं. मुलाकातों और चर्चाओं का यह सिलसिला सुबह नाश्ते की मेज पर ही शुरू हो जाता है. हर सुबह एक "साइंस ब्रेकफास्ट" आयोजित किया जाता है. नाम सुन कर लगता है जैसे नाश्ते पर भी लैब के कुछ एक्सपेरिमेंट किए जाएंगे लेकिन ऐसा यहां कुछ नहीं होता. साइंस ब्रेकफास्ट के दौरान विज्ञान के विषयों पर चर्चा होती है.

इस बार की खास बात यह रही कि क्लासरूम जैसे वैज्ञानिक विषयों से अलग विज्ञान के सामाजिक पहलुओं पर ज्यादा ध्यान दिया गया. रिसर्चर खाना खाते हुए इस बात पर चर्चा करते दिखे कि दुनिया की पूरी आबादी तक खाना कैसे पहुंचाया जाए. युवा रिसर्चर भविष्य के लिए समाधान खोजना चाहते हैं. इसलिए मौजूदा सात अरब की जगह 2050 तक 9.6 अरब की आबादी का आहार सुनिश्चित करने पर बहस करते नजर आए.

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"कहते हैं वैज्ञानिक मशीनों जैसे होते हैं, भावों से दूर. मुझे वे भावों से भरपूर पर जानकारी से कुछ दूर लगे."तस्वीर: DW/P. Henriksen

वैज्ञानिक जानते हैं कि सिर्फ खाने की मात्रा ही नहीं, गुणवत्ता भी जरूरी है. इसी को ध्यान में रखते हुए अगले दिन के ब्रेकफास्ट का थीम पोषण और पर्यावरण चुना गया. यहां इस बात पर चर्चा हुई कि पेड़ पौधों के जैविक ढांचे के साथ कितना छेड़ छाड़ किया जा सकता है. एक अन्य ब्रेकफास्ट में वैज्ञानिकों की नैतिकता पर बहस होती दिखी. पूरी दुनिया की आबादी को पोषण देने के लिए वैज्ञानिक कहां तक जा सकते हैं, उनकी हदें क्या हैं, यह लंबे समय से चर्चा का विषय रहा है और यकीनन आगे भी रहेगा.

कहते हैं वैज्ञानिक मशीनों जैसे होते हैं, भावों से दूर. मुझे वे भावों से भरपूर पर जानकारी से कुछ दूर लगे. प्रयोगशाला में दिन रात बिता देने वाले रिसर्चरों के पास शायद समाज की दिक्कतें बयान करती फिल्में देखने का मौका नहीं होता. वैज्ञानिक गणित वाली मोटी मोटी किताबें पढ़ने के बाद शायद सामाजिक हकीकत पर किताबें पढ़ने का वक्त नहीं मिलता होगा. इसीलिए नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित कैलाश सत्यार्थी ने जब यह उदाहरण दिया कि कैसे हम तक पहुंचने वाली चॉकलेट की कीमत अफ्रीका में बच्चों के बचपन के रूप में चुकाई जाती है, तो उनके चेहरों पर हैरानी का भाव देखने को मिला.

सत्यार्थी का भाषण हो या साइंस ब्रेकफास्ट, इनका भाव एक ही था, युवा रिसर्चरों को किताबों की दुनिया से बाहर निकाल, असली दुनिया की एक झलक दिखाना. एक बात तय है कि बेहतर भविष्य के लिए आम लोगों में भी वैज्ञानिक सोच की जरूरत है. तो क्यों ना वैज्ञानिक और गैर वैज्ञानिक लोगों के बीच का फासला कम किया जाए? क्यों ना साल में एक बार नाश्ते पर चर्चा करने की जगह इन चर्चाओं को "साइंस एजुकेशन" का हिस्सा ही बना दिया जाए? स्कूलों और कॉलेजों में "आर्ट्स" और "साइंस" के छात्रों को साथ ला कर ऐसा किया जा सकता है. नाश्ते पर चर्चा शिक्षा के लिए एक बेहतरीन मॉडल साबित हो सकता है.

ब्लॉग: ईशा भाटिया