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चिराग तले अंधेरा

५ नवम्बर २०१०

कुछ साल पहले तक मिट्टी के दीए के बिना दीवाली की कल्पना तक नहीं की जा सकती थी. लेकिन चीन में बने बिजली के झालरों और दीयों ने मिट्टी के दीए को दिवाली से बेदखल कर दिया है. इसे बनाने वाले कुमाहरों के दिन भी गर्दिश में.

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तस्वीर: DW

दीवाली में पारंपरिक तौर पर सबसे ज्यादा इस्तेमाल होने वाले मिट्टी के दीए अब सिमट कर शगुन के तौर पर इस्तेमाल होने लगे हैं. पहले कुम्हारों को दीवाली जैसे त्योहारों का बेसब्री से इन्तजार रहता था. कुम्हार दीयों की मांग पूरी करने के लिए तैयारी महीनों पहले से शुरू कर देते थे. लगातार बढ़ती मंहगाई और लोगों की बदली रुचि से अब तस्वीर बदल गई है. चीन से आई बिजली की सस्ती रंगीन झालरों और विभिन्न डिजाइनों की रंगीन मोमबत्तियों ने दीए को महत्वहीन बना दिया.
कोलकाता के कुम्हार दिलीप प्रजापति बताते हैं कि महंगाई की वजह से कारोबार घट कर आधा रह गया है. कड़ी मेहनत के बावजूद लागत नहीं वसूल होती. वे कहते हैं "महंगाई की मार से कु्म्हार ही नहीं, आम लोग भी प्रभावित हुए हैं. पहले लोग 100 से 400 दीए खरीदते थे और उनमें सरसों तेल डाल कर चारों ओर सजाते थे. लेकिन आज सरसों तेल की कीमतें बढ़ने के बाद अब लोग केवल शगुन के लिए 11 और 21 दीपक खरीद कर अपना काम चला रहे हैं."
आखिर दीवाली मनाने में बदलाव की वजह क्या है? जवाब सीधा है. इसकी वजह चीनी मोमबत्तियों और झालरों की कम कीमत और झिलमिलाती आकर्षक रोशनी है. दुकानदारों का कहना है कि इन झालरों की सजावट बेहद आसान होती है. इनको लगाने के लिए किसी इलेक्ट्रिशियन की मदद की भी जरूरत नहीं होती और इसके बल्ब भी जल्दी खराब नहीं होते.
कोलकाता के बाजारों में इन दिनों चीनी झालरों और सजावट वाली बत्तियों की भरमार है. यहां बल्ब खरीदने आए दीपक चक्रवर्ती बताते हैं कि तेल की कीमत बढ़ गई है. चीनी बत्तियां विविध डिजाइनों में मिलती है. इनमें खर्च कम है और रखरखाव का झंझट भी नहीं है. एक बार खरीदने पर यह कई साल तक चलती हैं.

Chinesische Lichter für indisches Lichtfest Diwali
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Traditionelle Lampen für Diwali
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दुकानदार मोहम्मद नसीम कहते हैं "हर साल दीवाली के मौके पर नए डिजाइन की बत्तियां आ जाती हैं. सस्ती और आकर्षक होने की वजह से लोगों में इनकी भारी मांग है."

चीनी बल्बों के इस प्रकाश में पारंपरिक दीए की रोशनी टिमटिमाने लगी है और इनको बनाने वाले कुम्हारों की जिंदगी में अंधेरा पसरने लगा है.

रिपोर्टः प्रभाकर, कोलकाता

संपादनः एन रंजन



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