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चुनावों से गायब कला संस्कृति

२८ अप्रैल २०१४

लोकसभा के भीषण चुनावी महाप्रचार में होना तो ये चाहिए था कि मुद्दे भी उतने ही अर्थपूर्ण, सरोकारी और सुदूर भारत तक के होते. लेकिन ऐसा है नहीं. सत्ता की ऐसी झपटमारी है कि राजनैतिक गर्जनाएं तो हैं लेकिन सांस्कृतिक गूंज नहीं.

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तस्वीर: DW/S. Bandyopadhyay

आप इसे आसानी से राजनैतिक दलों के चुनाव प्रचारों में देख लीजिए. वहां लोगों की सांस्कृतिक जरूरतें अभिव्यक्त नहीं हो रही हैं. क्या साहित्य और संस्कृति और मनुष्य की कुल जमा बेहतरी के पर्यावरण के बारे में वहां कोई जगह आप देख पाते हैं? कार्यकर्ता और समर्थक के तौर पर तो आपको कुछ बुराई नजर नहीं आएगी लेकिन आम नागरिक की निगाह से देखें तो चुनाव 2014 एक संस्कृति-विहीन चुनाव दिखता है. राजनैतिक बौखलाहटों, ताकत की इतराहटों और अट्टहासों का वक्त है लिहाजा गरिमा, नैतिकता और अन्य मानवीय मूल्यों की आपराधिक अनदेखी की जा रही है. इन्हीं मूल्यों में संस्कृति भी शामिल है.

और सांस्कृतिक जरूरतों के नाम पर हम क्या देखते हैं? हम पाते हैं कि धर्म और आस्था के वही रटे रटाए और न जाने कब से दोहराए जाते रहे प्रतीकों को ही हमारे लोगों के आगे कर दिया गया है. बस इतनी ही संस्कृति है. मिसाल के लिए बनारस को ही लें. बनारस का ऐसा घाटकरण कर दिया गया है कि मानो उसके आगे और अंदर कोई बनारस ही न हो. सारी बहसें सारा मीडिया घाटों और नकली अध्यात्म के हवाले से चुनावी गणित में अपने तीर तुक्के चला रहा है. वरिष्ठ पत्रकार रवीश कुमार ने ठीक कहा है कि बनारस सिर्फ घाट नहीं है. वो उस बनारस को समझने के लिए निकले जो भारतीय भूगोल का एक अनजाना अदेखा और अस्पृश्य हिस्सा है. उन दलित उपेक्षित समाजों की सांस्कृतिक जरूरत क्या बनारस का रंगारंग बनाया जा रहा चुनाव पूरी कर पाएगा. महापर्व बताए जा रहे चुनाव में इस बेहाली को शामिल क्यों नहीं किया जा रहा है. क्या ये नादानी है या ये सोचासमझा गणित.

Lotus Relief Sandstein Indien
तस्वीर: picture alliance/akg-images

इन चुनावों ने सबसे ज्यादा अगर आशंकित किया है तो सांस्कृतिक लिहाज से ही किया है. उग्र राष्ट्रवादी विचारधारा संस्कृति, साहित्य और समाज के प्रति क्या नजरिया रखती हैं ये कोई रहस्य नहीं. इसीलिए चिंताएं तो बनेगी ही. काश अच्छा होता अगर राजनैतिक दलों के प्रचार अभियानों में हमें इन चिंताओं और आशंकाओं का जवाब मिल पाता. कोई तसल्ली मिलती, कोई पक्का ठोस नैतिक आश्वासन. कोई ऐक्शन प्लान.

ऐसा लगता है कि देश के साहित्य या देश के सांस्कृतिक ढांचे की सुरक्षा की बात आते ही राजनैतिक दलों और उनके अंधभक्तों को नींद आ जाती है. चुनाव संस्कृति का इससे बड़ा अभिशाप और क्या हो सकता है कि मनुष्य जीवन की कोमलताओं, संवेदनाओं, अनुभूतियों और नैतिकताओं के निर्माण की कार्रवाइयों और प्रयासों से वो बिलकुल खाली हो. जो समाज अपने साहित्य और अपने लोक-मूल्यों की हिफाजत में नाकाम रहता है वो कितनी भी तरक्की कर ले, बढ़ता तो वो एक लफंगे राष्ट्र के निर्माण की दिशा में ही है, कोई माने या न माने. इतिहास में मिसालें हैं.

एक चुनाव में एक मतदाता की सबसे मानवीय और सबसे जरूरी सांस्कृतिक जरूरत क्या हो सकती है? वो हो सकती है उसकी संवेदना और उसकी निजी खुशियों की सुरक्षा. उसके सांस्कृतिक भूगोल की रक्षा. अपनी मिट्टी, अपनी भाषा और अपनी परंपरा से बेदखली से सुरक्षा. क्या आज का चुनाव और आज के राजनैतिक दल ये आश्वासन और ये भरोसा दिला पाने की स्थिति में हैं. क्या वे दिल पर हाथ रखकर कह सकते हैं कि उनके घोषणापत्रों में आम भारतीय जन की व्यथा-कथाओं और उनकी सांस्कृतिक अपेक्षाओं को समझने का कोई ईमानदार अध्याय है.

Bildergalerie Holi Fest in Deutschland Berlin 2013
तस्वीर: Imago

बीजेपी को ही लें जो सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का झंडा बुलंद किए रहती है. उसके घोषणापत्र में संस्कृति को आधुनिक भारत के निर्माण का भले ही सर्वश्रेष्ठ आधार बताया गया है लेकिन सबसे आखिरी में जिन सांस्कृतिक विरासतों की हिफाजत का लक्ष्य है उनमें सबसे पहले नाम राम मंदिर का है. पिछले दिनों एक बातचीत में जानेमाने कन्नड़ लेखक यूआर अनंतमूर्ति ने कहा था, “भारत को एक मजबूत और शक्तिशाली राष्ट्र बनाने का ईमानदार प्रयास भी खतरे से भरा है. शक्तिशाली को सैन्य शक्ति, तकनीकी शक्ति, आर्थिक शक्ति आदि के रूप में ही परिभाषित किया जाता है. लेकिन भारत को शक्तिशाली नहीं, लचीला राष्ट्र बनने की जरूरत है. भारत एक अलग किस्म की सभ्यता है.”

लेकिन चुनाव में सांस्कृतिक चुप्पियों का क्या ये अर्थ है हम एक एकांगी और खास राष्ट्रवादी सोच से निर्धारित सत्ता संरचनाओं की ओर बढ़ रहे हैं. भारत की बहुलतावादी संस्कृति और सांस्कृतिक सामाजिक वैविध्य इसकी इजाजत तो नहीं देते. उसकी खिड़कियों और दरवाजों ने अभी इतनी जंग नहीं खाई है कि कोई उन्हें उखाड़ कर वहां दीवार ही लगा दे.

ब्लॉग: शिवप्रसाद जोशी

संपादन: महेश झा