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समाज

जब शब्द नहीं निकलते

९ मई २०१३

वे वाक्य ठीक से नहीं बोल पाते. शब्द के अक्षर या नाद बार बार दुहराते हैं, ताकि शब्द मुंह से बाहर निकल सकें. रास्ता पूछना या किसी से टेलीफोन पर बात करना, यह आम सी स्थिति हकलाने वाले के लिए भारी मुश्किल की वजह हो सकती है.

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तस्वीर: Fotolia/Minerva Studio

हकलाने का इलाज तो नहीं किया जा सकता लेकिन थेरैपी संभव है. न्यूरोलॉजिस्ट डॉ. मार्टिन सोम्मर इसकी तुलना रेडियो के रिसेप्शन से करते हैं, "मैं इसकी तुलना ऐसे व्यक्ति से करता हूं जो कार रेडियो सुन रहा है और रिसेप्शन अच्छा नहीं है. थोड़ा बहुत शोर है, लेकिन खबर समझी जा सकती है. लेकिन जब अतिरिक्त बाधा पैदा होती है, पुल पर या संकड़ी गली में, तो सिग्नल टूट जाता है." डॉ. सोम्मर जब हकलाने की प्रक्रिया की व्याख्या करते हैं तो वे अपने ज्ञान और अनुभवों के आधार पर बोल रहे हैं. वे न सिर्फ न्यूरोलॉजिस्ट हैं बल्कि खुद जर्मनी के उन 800,000 लोगों में हैं जो धाराप्रवाह बोल नहीं सकते. यह देश की आबादी का एक प्रतिशत हिस्सा है. हकलाने वालों का यही अनुपात दुनिया के हर देश में है.

Dr. Martin Sommer
मार्टिन सोम्मरतस्वीर: bvss

हकलाने की शुरुआत तीन से छह वर्ष की उम्र में होती है. अगर जल्दी से कुछ किया जाए तो इसके सुधरने के आसार अच्छे होते हैं, क्योंकि इस उम्र में थेरैपी की संभावनाएं अनुकूल होती है. 60 से 80 प्रतिशत बच्चों का हकलाना समय के साथ अपने आप खत्म हो जाता है, जबकि बाकी को उसके साथ जीना सीखना होता है. अब तक हकलाने का कोई इलाज नहीं संभव है. इससे प्रभावित लोगों में 80 प्रतिशत हिस्सा मर्दों का है.

डॉ. मार्टिन सोम्मर बताते हैं कि इस समस्या का मुख्य लक्षण क्य-क्य-क्य-क्या दुहराना या त-त-त-त जैसा शब्द लंबा खींचना है. इसके अलावा बोलने में तनावपूर्ण बाधा भी है, जब बोलने के तंत्र पूरी तरह बाधित हो जाते हैं, बाहर की ओर कोई आवाज नहीं आती, स्पष्ट बोलने के तंत्र पर तनाव दिखता है. हकलाने वाला जानता है कि उसे क्या बोलना है, लेकिन शब्द बाहर नहीं निकलते. बोलने का तंत्र काम नहीं करता.

ऐसे बहुत से लोग मनोवैज्ञानिक समस्याओं के शिकार हो जाते हैं, वे अपने को अलग थलग कर लेते हैं, दूसरों से मिलना जुलना बंद कर देते हैं. बहुत से लोग कुछ खास शब्दों या परिस्थितियों का इस्तेमाल करने से बचते हैं. इनमें रेल का टिकट खरीदना, किसी से फोन पर बात करना या रास्ता पूछना शामिल हो सकता है. साफ साफ बोलने वाले लोगों के लिए मामूली सी चीज हकलाने वाले व्यक्ति के लिए हल न होने वाली बाधा बन सकती है.

Symbolbild - Telekommunikation
फोन करना भी चुनौतीतस्वीर: picture-alliance/JOKER

हकलाने की वजह क्या है, कौन सी बाधा या बोलने के तंत्र में कौन सी गड़बड़ी उसकी वजह बनती है, इस पर लंबे समय से रिसर्च हो रही है. मार्टिन सोम्मर का कहना है कि बोलने के तंत्र की जांच में वैज्ञानिकों को कोई विसंगतियां नहीं मिली हैं. वे कहते हैं, "संभवतः यह नियंत्रण की समस्या है कि बोलने के लिए जिम्मेवार जीभ और ग्रसनी की मांशपेशियां हकलाने वाले के मामले में उतनी अच्छी तरह, विश्वसनीय तरीके से, गलती के बिना और सुरक्षित निर्देशित नहीं होती है, जितनी साफ साफ बोलने वालों के मामले में."

करीब 15 सालों से हकलाने की वजह का पता करने के लिए इमेजिंग तकनीक का भी इस्तेमाल किया जा रहा है. इसमें मैगनेट रेजोनेंस इमेजिंग एमआरआई टेस्ट भी शामिल है. इसमें दिमाग की बनावट की तस्वीर खींची जाती है. वयस्कों के मामले में बहुत सारे टेस्ट किए गए हैं, जो दिखाते हैं कि दिमाग के बायीं ओर आगे की तरफ कुछ डिसऑर्डर सा हो सकता है. यह वह इलाका है जो बोलने के लिए जिम्मेवार है. डॉ. सोम्मर कहते हैं कि यह ऐसा है कि ग्रे कोशिकाएं तो हैं लेकिन उन्हें जोड़ने वाला तंत्र टूटा हुआ है या कमजोर है.

अगर यहां समस्या हो तो बोलने के लिए जरूरी मांशपेशियों का इस्तेमाल करने में मुश्किल हो ही सकती है. चिकित्सकों का मानना है कि हकलाने की वजह न्यूरोलॉजिकल या मनोवैज्ञानिक हो सकती है, क्योंकि अधिकांश लोगों में दबाव बोलने के प्रवाह को प्रभावित करता है. लेकिन जेनेटिक्स की भी बड़ी भूमिका है. कुछ अध्ययनों के अनुसार तीन चौथाई लोगों के मामले में हकलाने की वजह अनुवांशिक हो सकती है. कुछ परिवारों में यह अक्सर देखने को मिलता है. जैसे डॉ. राइनर नोनेनबर्ग के मामले में. "मेरे पिता हकलाते थे, मेरे दादा भी. मेरा एक बेटा है, वह भी हकलाता है."

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दिमाग की जांचतस्वीर: imago stock&people

टैक्स एडवाइजर राइनर नोनेनबर्ग खुद को गंभीर रूप से हकलाने वाला मानते हैं. कभी कभी तो शब्द को निकलने में कुछ सेकंड लग जाते हैं. उनकी लोगोपेडिक थेरैपी कभी नहीं हुई. कहते हैं कि उस जमाने में यह सामान्य नहीं था. जून में वे 70 साल के हो जाएंगे. सारी जिंदगी वह परेशान रहे हैं. इसमें ऐसा वक्त रहा जब वे बिना किसी मुश्किल के बोल पाते थे, लेकिन ऐसा वक्त भी होता था जब उन्हें बोलने में दिक्कत होती थी.

दिक्कत झेलने वाले राइनर नोनेनबर्ग अकेले नहीं हैं. बहुत नामी लोग भी इसका शिकार रहे हैं. ब्रिटिश लेखक जॉर्ज बर्नार्ड शॉ या वैज्ञानिक आइजक न्यूटन या फिर एक्टर ब्रूस विलिस. मशहूर ग्रीक दार्शनिक अरस्तू को भी बोलने के लिए शब्द नहीं मिलते थे.

इलाज नहीं है, लेकिन अनुभवों को बांटकर इससे निबटने के रास्ते निकाले जा सकते हैं. कोलोन में खुद की मदद करने वाली संस्था हफ्ते में एक बार पीड़ितों की बैठक का आयोजन करती है. 1974 में गठन के बाद से इस संस्था का लक्ष्य है, "अपने हकलाने के साथ खुला और आत्मविश्वास से भरा बर्ताव सीखना और उसके जरिए साफ बोलने को संभव बनाना." यह संस्था प्रभावित लोगों के लिए टेलीफोन ट्रेनिंग, वीडियो ट्रेनिंग या लोगों के सामने पढ़कर सुनाने जैसे आयोजन करती है.

Logo Bundesvereinigung Stottern & Selbsthilfe e.V. (BVSS)

पेटे चोल्बे इस संस्था की गतिविधियों में अहम भूमिका निभाते हैं. वे थेरैपिस्टों और बोलने की ट्रोनिंग देने वाले लोगोपेडी विशेषज्ञों के साथ वर्कशॉप करते हैं. उनका कहना है कि उद्देश्य यह है कि हर कोई बोल सकने के लिए अपना खुद का तरीका ढूंढे. "एक विकल्प यह है कि वाक्यों को इस तरह गढ़ा जाए कि उनमें ऐसे शब्दों का प्रयोग हो, जिन्हें निडर होकर बोला जा सके. ये ऐसे शब्द हैं जिन्हें बोलने में भय नहीं होता."

थेरैपी का एक तरीका फ्लुएंसी शेपिंग है. इसमें आवाज को मध्यम रखकर बोलने को इस तरह बदला जाता है कि हकलाना नहीं होता. डॉ. सोम्मर कहते हैं, "दूसरा बड़ा विकल्प है हकलाने को बदलना, उसमें मैं यूं तो सामान्य रूप से बोलता हूं, लेकिन जिन शब्दों को बोलने में दिक्कत होती है, उसमें बाधा को नियंत्रित रूप से दूर करने की कोशिश करता हूं." इस तरीके का विकास करने वाले चार्ल्स फान रिपर ने कहा था, "हम चुन नहीं सकते कि क्या हम हकलाएंगे, लेकिन चुन सकते हैं कि किस तरह हकलाएंगे."

हकलाने के दौरान दिमाग का एक हिस्सा दूसरे की कमजोरी की भरपाई करने की कोशिश करता है. यह पता है कि गाने की गतिविधियां दिमाग के दाएं हिस्से में होती हैं और वह सभी हकलाने वालों में बिना किसी बाधा के काम करता है. इसके विपरीत बोलने की जिम्मेदारी दिमाग के बाएं हिस्से की होती है. इसलिए हकलाने वालों को गाने में कोई दिक्कत नहीं होती.

रिपोर्ट: गुडरुन हाइजे/एमजे

संपादन: आभा मोंढे

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