1. कंटेंट पर जाएं
  2. मेन्यू पर जाएं
  3. डीडब्ल्यू की अन्य साइट देखें

जरूरत सामूहिक समझ और तालमेल की

शिवप्रसाद जोशी३ नवम्बर २०१४

भारत इन दिनों विचित्र बहसों में उलझा है. ऐसी बहसें सबसे ज्यादा संस्कृति, इतिहास और शिक्षा के क्षेत्र में उठ रही हैं. नया विवाद इस पर है कि देश के उच्च शिक्षा संस्थानों में शाकाहार और मांसाहार की अलग कैंटीनें होनी चाहिए.

https://p.dw.com/p/1DfHY
तस्वीर: Fotolia/Minerva Studio

मानव संसाधन विकास मंत्रालय की मुखिया स्मृति ईरानी को ऐसी शिकायतें मिली हैं जिनके आधार पर आईआईटी और आईआईएम जैसे उच्च शिक्षण संस्थानों से जवाब तलब किया गया है. सांस्कृतिक राष्ट्रवाद, पवित्रतावाद और शुद्धतावाद के पैरोकार संघ का अभियान यूं तो वर्षों पुराना है लेकिन अब उसे एक नयी गति मिल गयी है क्योंकि उसकी ही राजनैतिक इकाई अब देश में हुकूमत चला रही है. लिहाजा इस तरह की बातें अब आए दिन सामने आ रही हैं. ऐसा करें, ऐसा न करें. ये पढ़ाएं ये न पढ़ाएं. ऐसा पहने ऐसा न पहनें, ये खाएं, ये न खाएं. सबसे ज्यादा लक्षित, इस समय जाहिर है शैक्षिक संस्थान हैं, इसलिए उनके लिए ये समय बेहद सब्र और इम्तहान का भी है.

खबरों के मुताबिक इन संस्थानों में पढ़ने वाले कई छात्र भी उद्वेलित हैं. उनका कहना है कि कैंटीनें अलग अलग करने की बात तो किसी के जेहन में है ही नहीं और शाकाहारियों की भावना का ख्याल रखा ही जाता है. तो इस तरह का अलगाव प्रतीकात्मक तौर पर दूरगामी असर क्या डालेगा? बात सिर्फ भोजनशैलियों की नहीं, ये तो धीरे धीरे एक नये सांस्कृतिक विलगाव को जन्म देगा. जबकि शिकायतों का लब्बोलुआब ये है कि मांसाहार खाने से सामाजिक और सांस्कृतिक भ्रष्टता आ जाती है, ये पश्चिमी मूल्य है और शाकाहारियों का निरादर है.

सांस्कृतिक शुद्धिकरण की इस मुहिम की परिणति एक ही विचार, एक ही संस्कृति बन जाने में निहित है. सोचिए भारत जैसे अपार सांस्कृतिक विविधताओं वाले देश के लिए ये कैसी क्षति होगी. जैसे त्योहार, रहनसहन, आचार-विचार की विविधता है देश में, वैसी ही खान-पान की वैविध्यपूर्ण संस्कृति है. आज शैक्षिक संस्थानों में कैंटीनें अलग करने का मसला है कल गली, नुक्कड़ों तक ये बहस छेड़ी जाएगी तो क्या होगा.

और सबसे बड़ा ताज्जुब तो ये होता है कि ऐसा उस महादेश में हो रहा है जिसके पुरखों का एक मांसाहार से जुड़ा इतिहास रहा है. चाहे वो प्राचीन इतिहास हो या उससे पहले मिथकीय इतिहास. जिन आर्यों की हम संतानें हैं, जो वेद हमारे आदिज्ञान का हिस्सा हैं, वहां क्या ये बंदिशें थीं? इसी कड़ी में हम देखते हैं कि इन दिनों इतिहास के तथ्यों को बदलने या उसके कथित राष्ट्रवादी पुनर्लेखन के इरादे भी पुरजोर हो उठे हैं.

ब्लॉग लेखक का जर्मनी में एक मिलीजुली राष्ट्रीय और स्थानीय संस्कृतियों से आए सहयोगियों के बीच काम का अनुभव रहा है. वो जर्मनी जिसका भारत की प्राचीन विरासत से एक सांस्कृतिक रिश्ता रहा है. वहां कोई नैतिक अतिरेक नजर नहीं आए. फिर ये अनावश्यक सा अभियान भारत में क्योंकर है जहां सबसे बड़ी लड़ाई अगर आज के दौर की है तो वो यही है कि किसी तरह लोगों में, समूहों में, धर्मों और जातियों में, स्त्रियों और पुरुषों में तालमेल और समन्वय हो. सामूहिक समझ और पारस्परिक स्नेह की भावना बढ़े.

कुछ जाति समूहों में मांसाहार वर्जित है. इसका सम्मान करना चाहिए. उनकी भावना का ख्याल रखना चाहिए. लेकिन इसका अर्थ ये नहीं है कि आईआईटी और आईआईएम जैसे संस्थानों में अलग अलग कैंटीनों का राग छेड़ा जाए. इससे तो मानव संसाधन का भला नहीं होगा. मांसाहार और शाकाहार की बहस, सिर्फ संस्कृति या नैतिकता की बहस ही नहीं है ये स्वायत्तता और अधिकार की बहस भी है. बात सिर्फ संस्थान की नहीं है वहां पढ़ने वालों और पढ़ाने वालों की भी है. और रही बात मांसाहार की शुद्धता और नैतिकता की तो दुनिया में कहीं भी ऐसा कोई वैज्ञानिक परीक्षण नहीं हुआ है जो ये साबित करे कि मांसाहार ही मनुष्य की अनैतिकता और मानसिक और सामाजिक बीमारियों का जिम्मेदार है. आप इक्का दुक्का उदाहरणों से इस बहस को उलझा नहीं सकते हैं.

क्या हम ये चाहते हैं कि हम पर भी कट्टरपन का ठप्पा लग जाए? आईआईटी और आईआईएम वैचारिक और सांस्कृतिक दारिद्रय का शिकार होकर कठमुल्ले हो जाएं? हम ऐसा हरगिज नहीं चाहेंगे.