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रंग बदला है, चरित्र नहीं

प्रभाकर११ जनवरी २०१५

यूपीए की तरह एनडीए सरकार ने भी नेताजी की रहस्यमय गुमशुदगी से संबंधित दस्तावेजों को सार्वजनिक करने से इंकार कर दिया है. यानि केंद्र में सरकार चलाने वाली पार्टी का रंग भले बदल गया हो, उसका चरित्र बिल्कुल नहीं बदला है.

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Subhash Chandra Bose
तस्वीर: gemeinfrei

भारत सरकार ने नेताजी सुभाष चंद्र बोस की रहस्यमय गुमशुदगी से संबंधित चार दशक पुराने दस्तावेजों को सार्वजनिक करने से इसलिए इंकार कर दिया है कि उससे अंतरराष्ट्रीय संबंधों पर असर पड़ेगा. सीपीएम, तृणमूल कांग्रेस, एमडीएमके और नेताजी के परिजनों की लगातार मांग के बावजूद केंद्र में कांग्रेस की अगुवाई वाली पूर्व यूपीए सरकार लगातार उन फाइलों को सार्वजनिक करने से इंकार करती रही है. अब नरेंद्र मोदी की अगुवाई वाली एनडीए सरकार भी कम से कम इस मामले में यूपीए की राह पर ही चल रही है.

वैसे, भारत में सत्ता और विपक्ष में रहते समय राजनीतिक दलों का रवैया अलग-अलग होता है. भाजपा भी इसकी अपवाद नहीं है. अभी ज्यादा दिन नहीं हुए, पिछले साल जनवरी में भाजपा नेता और मौजूदा गृह मंत्री राजनाथ सिंह, जो तब विपक्ष में थे, ने नेताजी के जन्मस्थान कटक में यूपीए सरकार से नेताजी से संबंधित दस्तावेजों को सार्वजनिक करने की मांग उठाई थी. लेकिन सत्ता में आते ही अचानक पार्टी के सुर बदल गए और वह अब विदेशी और राजनयिक संबंधों के हवाले से ऐसा करने से खुद इंकार कर रही है.

हमाम में सब नंगे हैं

नेताजी की रहस्यमय गुमशुदगी की जांच के लिए केंद्रीय गृह मंत्रालय ने दो आयोगों का गठन किया था. अब तक इनमें से महज दो फाइलों को सार्वजनिक कर उनको नेशनल आर्काइव्स (राष्ट्रीय अभिलेखागार) में भेजा गया है. बाकी कम से कम 87 फाइलों को 'अति गोपनीय' का दर्जा देकर सरकार ने उनको सार्वजनिक करने से इंकार कर दिया है. ऐसे में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि आखिर सरकार क्या छिपाने का प्रयास कर रही है? उसे आखिर किस बात का डर है? अमेरिका और यूरोपीय देश तो तीस साल बाद अपनी गोपनीय फाइलों को सार्वजनिक कर देते हैं. ऐसे में सरकार ऐसा करने से क्यों बच रही है? या फिर यह हो सकता है कि 'चोर-चोर मौसेरे भाई' की तर्ज पर कोई राजनीतिक पार्टी गोपनीय फाइलों को रिलीज कर किसी नई परंपरा की शुरूआत नहीं करना चाहतीं. आखिर हमाम में तो सब नंगे हैं! एक बार यह परंपरा कायम हो गई तो आगे चल कर सबके लिए मुसीबत हो सकती है. अगर ऐसा हुआ तो यह भारतीय लोकतंत्र के लिए शर्मनाक है.

सरकारों के इस रवैए से जांच रिपोर्ट पर भी संदेह गहराने लगा है. सवाल उठता है कि क्या किसी पड़ोसी देश ने साजिश के तहत नेताजी की हत्या कराई थी? आखिर उन दस्तावेजों में ऐसा क्या है जिनके सामने आते ही दूसरे देशों से भारत के संबंध खराब हो सकते हैं? केंद्र ने आखिर यही तो दलील दी है. सरकार ने कहा है कि उन दस्तावेजों की सूचनाएं काफी संवेदनशील हैं. बंगाल में यह सवाल भी उठ रहा है कि जब जांच की रिपोर्ट को सार्वजनिक ही नहीं करना था तो करोड़ों रुपये खर्च कर दो-दो आयोगों का गठन क्यों किया गया? नेताजी की गुमशुदगी जितनी रहस्यमय है, जांच आयोग की रिपोर्ट उससे कहीं ज्यादा रहस्यमय बन गई है.

नेताजी की मौत के इतने लंबे अरसे बाद उनकी रहस्यमय गुमशुदगी का खुलासा होने से भारतीय राजनीति में किसी भूचाल का अंदेशा नहीं है. ऐसे में भाजपा को अपने उस रवैए पर कायम रहना चाहिए जो उसने इस मुद्दे पर विपक्ष में रहते अपनाया था. आखिर भारतीयों को अपने स्वाधीनता आंदोलन के सबसे बड़े हीरो में से एक रहे नेताजी के जीवन के आखिरी दिनों के बारे में जानने का हक तो बनता ही है. लेकिन मोदी सरकार के ताजा फैसले से इस बात की संभावना कम ही है.