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'जर्मनी में रिसर्च के कई मौके'

१० मई २०१३

कोलोन के माक्स प्लांक इंस्टिट्यूट से प्लांट केमिकल बायोलॉजी में रिसर्च कर रहे विवेक हल्दर कोलकाता से जर्मनी 2011 में डीएएडी स्कॉलरशिप मिलने पर आए.

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तस्वीर: DW

यह सफर आसान नहीं था लेकिन हल्दर सपने देखने में विश्वास रखते हैं, और मानते हैं कि डट कर मेहनत की जाए तो सपने सच होते हैं.

2010 में हल्दर के एक दोस्त ने उन्हें डीएएडी स्कॉलरशिप के बारे में बताया था. उसके बाद उन्होंने इंटरनेट पर इसके बारे में जानकारी इकट्ठा की और डीएएडी के दिल्ली कार्यालय में फोन करके मालूम किया कि इसे हासिल करने के लिए उन्हें क्या करना होगा. वहां से उन्हें माक्स प्लांक संस्थान के कुछ प्रोफेसरों से संपर्क करने का सुझाव मिला और उन्होंने अपने वर्तमान सुपरवाइजर को मेल लिखा. प्रक्रिया लंबी थी, पहले हल्दर को अपनी रिसर्च के विषय पर एक प्रस्ताव लिख कर भेजना था. यह सारी प्रक्रिया जून 2010 में शुरू हुई, 31 अक्टूबर 2010 को उन्हें पता चला कि उनका चयन हो गया है. 2011 में हल्दर जर्मनी आए और अपनी रिसर्च में जुट गए.

घर याद आता है

हल्दर ने बताया कि जर्मनी में वह बड़ी मिली जिली भावनाओं से गुजरते हैं. जर्मनी में पहते हुए कई बार उन्हें घर भी याद आता है तो अक्सर यहां बहुत अच्छा भी लगता है. शुरुआती दिनों में ही उन्हें डीएएडी कार्यक्रम के अंतर्गत जर्मन भाषा का कोर्स भी कराया गया, इस बीच उन्होंने अलग अलग देशों के लोगों से दोस्ती की, तरह तरह के पकवानों का मजा लिया और बहुत सारे दोस्त बनाए. भाषा सीखने से उन्हें काफी मदद मिली. हालांकि वह मानते हैं कि ऐसा बिल्कुल नहीं है कि जर्मनी में लोग अंग्रेजी नहीं बोलते, लेकिन जर्मन भाषा का ज्ञान होना आपके लिए और भी मददगार साबित होता है.दिल के साफ जर्मन

हल्दर ने बताया कि वह जर्मनी में लोगों के काम करने के तरीके से बहुत प्रभावित हैं. उन्हें लोगों की ईमानदारी, समय की पाबंदी और कर्मनिष्ठा बहुत पसंद है. लोग मिलनसार हैं लेकिन साथ ही कोई भी बात साफ सामने मुंह पर बोल देते हैं, कुछ भी मन में नहीं रखते. उन्होंने बताया कि जिस क्षेत्र में वह काम कर रहे हैं वह अभी कई जगह बहुत नया विषय है. उनके अनुसार जर्मनी में रिसर्च करना भारत के मुकाबले ज्यादा चुनौती भरा है क्योंकि विषय काफी नए हैं जिन पर ज्यादा काम अब तक नहीं हुआ है.

रिसर्च पूरी होने पर हल्दर भारत लौट कर अपनी एक बायोटेक्नोलॉजी की कंपनी खोलना चाहते हैं. उन्होंने कहा जर्मनी में जिस तरह लोग नियमों का पालन करते हैं वैसे ही वह भारत में भी देखना चाहते हैं. अगर उनका कोई जानने वाला भी जर्मनी आए तो उन्हें बहुत अच्छा लगेगा क्योंकि ऐसे में एक अच्छा भविष्य उसके लिए आगे इंतजार कर रहा होगा.

रिपोर्टः समरा फातिमा

संपादनः आभा मोंढे