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जवाबदेही बिल में हर्जाने की तय रकम बढ़ाने का दबाव

१७ जून २०१०

परमाणु जवाबदेही विधेयक के मुद्दे पर केंद्र सरकार हर्जाने की रकम तय करने पर दबाव का सामना कर रही है. विपक्षी दलों, विश्लेषकों और गैरसरकारी संगठनों का कहना है कि निर्धारित 500 करोड़ रुपये की रकम बहुत कम है.

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तस्वीर: picture-alliance/dpa

पिछले कुछ समय से विज्ञान और प्रौद्योगिकी मंत्रालय के काम के लिए गठित संसदीय समिति एटमी हादसे के बाद हर्जाने की सीमा तय करने के मुद्दे पर बहस कर रही थी. विपक्ष मांग करता आ रहा है की निर्धारित 500 करोड़ रुपये की सीमा बहुत कम है. भोपाल गैस कांड के हाल के घटनाक्रम के बाद इस सोच में और मजबूती आ गयी थी.

भोपाल हादसे से पल्ला झाड़ते हुए कांग्रेस की नीति के बाद एक बार फिर सवाल खड़ा हो गया है क्या यह सीमा बढ़ाई जाये.

इस सवाल का महत्व अब और भी बढ़ गया है क्योंकि 22 जून को वॉशिंगटन में भारत-अमेरिका सीईओ फोरम की एक बैठक में वित्तमंत्री प्रणव मुखर्जी की अगुवाई में एक भारतीय दल हिस्सा लेगा. लेकिन क्या भारतीय दल अमेरिकी कम्पनी डाओ के सामने अपना पक्ष रखेगा.

दल के एक सदस्य और योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया ने इससे साफ इंकार कर दिया. अहलुवालिया ने कहा कि भारतीय दल को अमेरिकी सरकार के अलग अलग अधिकारियों से मिलना है और उन्हें नहीं लगता कि भोपाल को लेकर बात हो पाएगी.

मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव प्रकाश करत का कहना है कि परमाणु जवाबेही विधेयक और भोपाल गैस कांड को जोड़ कर देखना जरूरी है. करात का मानना है की परमाणु विधेयक सिर्फ अमेरिकी कम्पनियों के हित में है और किसी एटमी हादसे की सूरत में उन पर किसी बड़े हर्जाने का दबाव नहीं डालता.

भारतीय राजनीतिक दल पहले ही अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा से दोहरे मापदंड के लिए खफा हैं. मेक्सिको की खाड़ी में तेल रिसाव के लिए ओबामा ब्रिटिश पेट्रोलियम से तो हर्जाने की बात कर रहे हैं लेकिन भोपाल में युनियन कार्बाइड को लेकर चुप हैं.

ओबामा ने कल अमेरिका जनता से मुखातिब होते हुए कहा कि वह ब्रिटिश पेट्रोलियम अधिकारियों से बात कर उन अमेरिकी नागरिकों को हर्जाना दिलवाएंगे जिन्हें तेल रिसाव से नुकसान हुआ है. सवाल यह है की जब ओबामा कड़े शब्दों में ब्रिटिश पेट्रोलियम से मोटे हर्जाने की मांग करते हैं तो भारत से क्यों एटमी विधेयक पर आंख मूंद कर हस्ताक्षर करने की उम्मीद रखते हैं.

रिपोर्ट: नौरिस प्रीतम, दिल्ली

संपादन: एस गौड़