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जिन अफगान को चुनाव से वास्ता नहीं

१२ जून २०१४

युद्ध से जर्जर देश एक नया राष्ट्रपति चुन रहा है. दुनिया की नजरें हामिद करजई के उत्तराधिकारी पर हैं. लेकिन हजारों अफगान ऐसे हैं, जिन्हें इस बात से मतलब नहीं कि वहां अब क्या होने वाला है.

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तस्वीर: DW/H. Sirat

पाकिस्तान में रह रहे अफगान शरणार्थियों के लिए वतन जैसी कोई चीज नहीं रह गई. पश्चिमोत्तर पाकिस्तान के एक शरणार्थी शिविर में पैदा होकर पले बढ़े मुहम्मद रफीक कहते हैं, "हम जैसी खोई हुई पीढ़ियों के लिए अफगानिस्तान का बस चेहरा बदल रहा है." आठ बच्चों के पिता 30 साल के रफीक का कहना है, "हमें इस बात की कोई उम्मीद नहीं कि नए राष्ट्रपति चुने जाने के बाद अफगानिस्तान हमारे लिए ज्यादा सुरक्षित होगा. मुझे इस बात में शक है कि इसके बाद हमारी मातृभूमि वापस मिल सकेगी."
14 जून को राष्ट्रपति पद के लिए दूसरे दौर की वोटिंग होनी है. पहले दौर में कोई पक्का विजेता नहीं मिला था. देश दशकों से युद्ध झेल रहा है. पाकिस्तान के पश्चिमोत्तर में पेशावर के पास करीब 15,000 अफगान शरणार्थी रहते हैं. उन्हें नहीं लगता कि चुनाव के बाद भी अफगानिस्तान में कोई बदलाव होगा. 60 साल की विधवा सामरीन जान का कहना है, "इस कैंप में जीवन मुश्किल होता जा रहा है लेकिन फिर भी हम अफगानिस्तान लौटना नहीं चाहते. वहां भूख और मौत है."
सबको वापस भेजेंगे
अफगानिस्तान में लोगार प्रांत के दोबांदे गांव की सामरीन अपने सात पोते पोतियों के साथ लगभग तीन दशक से यहां रह रही है. उनका कहना है कि पाकिस्तानी अधिकारियों ने उनकी जिंदगी खराब कर दी है, जो आए दिन बिजली पानी काट देते हैं और उन पर पुलिस लगातार नजर रखती है. पाकिस्तान ने संयुक्त राष्ट्र और अंतरराष्ट्रीय दानदाताओं की मदद से दशकों तक अफगान शरणार्थियों को अपने यहां रखा है. लेकिन अब वह भी धीरज खोता जा रहा है.
शरणार्थी मामलों के मंत्री अब्दुल कादिर बलोच का कहना है, "हम 2015 तक उन सभी को वापस भेजने वाले हैं." 30 लाख से ज्यादा अफगान पाकिस्तान के कैंपों में रह रहे हैं. अधिकारियों का कहना है कि इस बीच वे अलग अलग शहरों में भी फैल गए हैं. इनमें से सिर्फ आधे शरणार्थी मामलों के संयुक्त राष्ट्र आयोग में रजिस्टर हैं. अधिकारियों का कहना है कि जो रजिस्टर नहीं हैं, वे कराची जैसे शहरों में अपराध कर रहे हैं.
सिंध प्रांत के मुख्यमंत्री कैम अली शाह ने आदेश दिया है कि कराची में अफगानों की हरकत पर नजर रखी जाए और उन्हें ज्यादा इधर उधर न जाने दिया जाए. कराची हाल के दिनों में पाकिस्तान का सबसे खतरनाक शहर बन गया है.
जाएं तो जाएं कहां
भले ही बिजली पानी काटी जा रही हो लेकिन अंतरराष्ट्रीय सेना के अफगानिस्तान से हटने के बाद पाकिस्तान में अफगान शरणार्थियों की संख्या बढ़ने की ही संभावना है. पाकिस्तानी अधिकारियों का कहना है कि वे इसके लिए तैयारी कर रहे हैं. पेशावर में अफगान शरणार्थियों के लिए बनाए गए दफ्तर के कमिश्नर मुहम्मद अब्बास खान कहते हैं, "मैं समझता हूं कि अभी से कई अफगान हमारे देश में घुसने की कोशिश कर रहे हैं."
खान का कहना है, "हम वित्तीय या सामाजिक तौर पर इसके लिए तैयार नहीं हैं." गैरकानूनी ढंग से पाकिस्तान आने वाले शरणार्थियों का कोई आधिकारिक आंकड़ा नहीं है लेकिन उनका कहना है कि यह संख्या हजारों में हो सकती है.
जानकारों का कहना है कि कमजोर अर्थव्यवस्था की वजह से पाकिस्तान के लिए समस्या बढ़ गई है. इस मामले पर विस्तार से लिखने वाली फिदा खान कहती हैं, "मुझे लगता है कि 35 साल पहले स्थानीय अर्थव्यवस्था के हिसाब से यह कोई बड़ी समस्या नहीं थी. उस वक्त पाकिस्तान ने सबसे ज्यादा संख्या में लोगों को शरण दी थी." पेशावर में रहने वाली खान कहती हैं, "अब स्थिति बदल गई है. पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था कमजोर पड़ गई है. बहुत से युवा बेरोजगार हैं. उन्हें यह बात मंजूर नहीं कि कोई शरणार्थी उनके हिस्से की रोजगार ले उड़े."
बिना वतन की पीढ़ी
रफीक और उनके साथी शरणार्थी चुनाव के बाद अफगानिस्तान लौटने के मूड में नहीं हैं, "हम रुक कर देखना चाहते हैं कि नया नेता कितनी सुरक्षा और रोजगार दे रहा है." रफीक एक लॉरी चलाते हैं, जो पेशावर से काबुल के बीच सीमेंट ढोती है. लेकिन वह अपने घर जाने की हिम्मत नहीं करते, जो हाइवे से बस 30 किलोमीटर की दूरी पर है. वह कहते हैं, "अपने घर के इतने पास होकर भी वहां नहीं जाना चुभता है. इसी लिए हम खुद को खोई हुई पीढ़ी कहते हैं, जिसका कोई वतन नहीं."
एजेए/एमजे (डीपीए)

Zum Thema Afghanistan - Die deutschen Entwicklungshelfer bleiben
किसी तरह रहने को मजबूरतस्वीर: picture-alliance/AP
Afghanistan 2014 Flüchtlinge
भारी संख्या में बाहर रह रहे अफगानतस्वीर: DW/H. Sirat