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जुकाम से छुटकारा

१३ दिसम्बर २०१२

जर्मनी के वैज्ञानिकों ने जुकाम के इलाज के लिए एक ऐसा टीका विकसित किया है जिससे न सिर्फ जुकाम से जल्द राहत बल्कि शरीर को भी जीवन भर जुकाम से लड़ने की प्रतिरोधक क्षमता मिल सकेगी.

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तस्वीर: Fotowerk/Fotolia

हालांकि अभी इस टीके का प्रयोग सिर्फ चूहों पर ही किया गया है और माना जा रहा है मनुष्य पर इसे आजमाने में अभी कई साल और लगेंगे. जर्मनी के फ्रीडरिष लोफ्लर रिसर्च इंस्टिट्यूट के वैज्ञानिकों ने इस टीके को बायोटेक्नोलॉजी की मशहूर कम्पनी क्योर वैक के साथ मिल कर विकसित किया है. इस टीके का आधार मैसेन्जर आरएनए (एमआरएनए) बताया जा रहा है, जो कि शरीर में प्रोटीन के निर्माण को नियोजित करता है.

इस टीके का प्रयोग वैज्ञानिकों ने चूहों के अलावा नेवलों और सूअर पर भी किया था. नेचर बायोटेक्नोलॉजी नामक पत्रिका में इससे संबन्धित लेख के अनुसार चूहों ने दवा को लेकर अच्छी प्रतिक्रिया दिखाई और उनमें आजीवन जुकाम से लड़ने की क्षमता का विकसित होना पाया गया.

Junge mit laufender Nase
तस्वीर: Yvonne Bogdanski/Fotolia

वैज्ञानिकों का मानना है कि इस कृत्रिम टीके को बनने में भी कम समय लगता है. जहां मुर्गी के अंडों और सेल कल्चर में तैयार होने वाले पारम्परिक टीकों में महीने लग जाते हैं वहीं यह टीका कुछ ही हफ्तों में तैयार हो जाता है. इस रिसर्च संस्था के प्रमुख लोथर श्टिट्स ने डीडब्ल्यू को बताया, ''पारम्परिक टीकों के लिए पहले आवश्यक वायरस को अलग करने की जरूरत होती है, फिर उसे एक अलग माध्यम में पनपने का मौका दिया जाता है जिससे कि वे संख्या में अधिक हो सकें. लेकिन इस कृत्रिम टीके के लिए सिर्फ वायरस के जेनेटिक नक्शे की जानकारी चाहिए.''

हर साल विश्व स्वास्थ्य संगठन डब्ल्यूएचओ उन वायरस की सूची जारी करता है जिनके फैलने का खतरा होता है और फिर इसके आधार पर दवाइयों की कंपनियां दवाएं बनाना शुरू करती हैं. कुछ लोंगों को मुर्गी के अंडों से एलर्जी की शिकायत होती है. उनके लिए पारम्परिक टीके लाभकारी साबित नहीं होते क्योंकि उन्हें उससे भी एलर्जी का खतरा होता है. ऐसे लोगों के लिए भी यह कृत्रिम ढंग से बने टीके ज्यादा फायदेमंद हैं.

दूसरे टीकों से ज्यादा फायदेमंद कैसे

प्रोफेसर श्टिट्स के अनुसार इस टीके के लिए अपनाए गए मैसेन्जर आरएनए के सिद्धांत के कई फाएदे हैं. जिसमें सबसे अहम यह कि इस टीके से चूहों में न सिर्फ ऐन्टीबॉडी (संक्रमण को खत्म करने वाले प्रोटीन के अणु) विकसित हुए बल्कि किलर टी सेल भी संख्या में बढ़ गए जो शरीर में किसी भी तरह के संक्रमण से लड़ने का काम करते हैं. आम तौर पर हम जिन टीकों का इस्तेमाल करते आए हैं उनमें सिर्फ वे एन्टीबॉडी होते हैं जो वायरस की सतह पर बैठे हेमाग्लूटानिन (एचए) और न्यूरामिनिडेस (एनए) नाम के प्रोटीन को निष्क्रिय कर देते हैं. लेकिन ये प्रोटीन अन्दर ही अपना रूप बदल कर शरीर में मौजूद रहते हैं और मौका पड़ने पर फिर सक्रिय हो जाते हैं. इसलिए जुकाम पलट कर कुछ समय बाद फिर हमला करता है.

Symbolbild Grippe
तस्वीर: picture-alliance/dpa

वैज्ञानिक इस कृत्रिम टीके के जरिए सिर्फ इन प्रोटीनों को ही नहीं, वायरस के भीतरी ढांचे को ही खत्म करने का प्रयास कर रहे हैं. जो कि किलर टी सेल से संभव है. इसीलिए वैज्ञानिक इसे जुकाम के इलाज के लिए एक लम्बे और भरोसेमंद इलाज की तरह देख रहे हैं.

यूनीवर्सिटी मेडिकल सेंटर हैमबर्ग में इम्यूनोलॉजी विभाग के अध्यक्ष डॉक्टर बर्नहार्ड फ्लाइशर ने कहा, ''मैं यह सोच कर हैरान हूं कि इतनी महत्वपूर्ण रिसर्च पहले क्यों नहीं हुई. जरा सोचिए, पारम्परिक तरीके से टीके को बनाने में कितने अंडे खर्च होते हैं और सेल कल्चर बनाना भी कितना महंगा भी पड़ता है.''

पहले भी हो चुकी है कोशिश

प्रोफेससर श्टिट्स ने डीडब्ल्यू को बताया कि इस प्रकार की रिसर्च लगभग 15 साल पहले भी की जा चुकी है लेकिन तब मैसेन्जर आरएनए को स्थिर करना मुमकिन नहीं हो पाया था. चूहों पर इस टीके को आजमा कर यह भी पाया गया कि नए और बूढ़े चूहों पर भी टीका असरदार है. अगर इस टीके का असर इंसानों पर भी चूहों जैसा ही निकलता है तो बच्चों और बूढ़ों के लिए बहुत ही बढ़िया बात होगी, क्योंकि अक्सर इन्हें जुकाम का खतरा ज्यादा होता है.

इस टीके के बाजार में आने में अभी कई साल लग जाएंगे. जर्मनी में दवाइयों की नियामक संस्था पॉल एर्लिश इंसटिट्यूटट के अध्यक्ष क्लाउस शिखुटेक ने डीडब्ल्यू को बताया कि पहले इसका इंसानों पर प्रयोग और फिर इसकी लाइसेंसिंग में भी समय लगने की संभावना है. इंस्टिट्यूट को इस विधि का इंतजार है जिससे टीके को बनाने में लगने वाला समय कम किया जा सकेगा. क्लॉस ने उम्मीद जताई कि अगर इस रिसर्च के अगले चरण में नेवलों पर भी टीके का असर ऐसा ही निकला तो यह बहुत ही बढ़िया बात होगी क्योंकि नेवले जुकाम के मामले में इंसानों से मिलते जुलते हैं.

रिपोर्टः सारा श्टेफेन/ एसएफ

संपादनः मानसी गोपालकृष्णन

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