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ट्रंप का भाषण प्रोत्साहन देने वाला लेकिन अधूरा

२२ मई २०१७

डॉनल्ड ट्रंप ने मुस्लिम देशों के शिखर सम्मेलन में इस्लाम और आतंकवाद पर अपना बहुप्रतीक्षित भाषण दिया. कैर्स्टेन क्निप का कहना है कि उनके शब्द उपयुक्त और प्रांसगिक थे, लेकिन उन्होंने महत्वपूर्ण मुद्दों को छोड़ दिया.

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US-Präsident Trump in Saudi-Arabien
तस्वीर: picture alliance /dpa/Saudi Press Agency

अपने अच्छे दिनों में डॉनल्ड ट्रंप मौके के जादूगर हैं. 2016 में अपनी चुनावी रैलियों में जब उन्होंने लोगों से ''मेक अमेरिका ग्रेट अगेन'' यानी अमेरिका को फिर महान बनाने की अपील की और पद संभालने के कुछ हफ्तों बाद जब उन्होंने कुछ हद तक समझौतावादी भाषण दिए, उनके भाषणों में एक विशेष लहजा देखने को मिला. जो भारी-भरकम शब्दों के इस्तेमाल के बावजूद सम्मानजनक था और सुनने वालों पर अच्छी छाप छोड़ी. भले ही वह सिर्फ भाषण के दौरान रहा हो.

हालांकि यह असर सीमित समय का था क्योंकि पहले के उनके भाषणों ने हमें एक अलग ही ट्रंप दिखाया था. ऐसा व्यक्ति जिसने कम उदार भावनाओं से लोगों का ध्यान अपनी ओर खींचा था, भावनाएं जो उस उदारता के अनुकूल नहीं थी जिसकी उन्होंने वकालत की थी. ऐसा ही कुछ एक बार इस्लाम पर उनके द्वारा व्यक्त किये गये विचारों में देखने को मिला. माहौल बेहद प्रभावशाली था. अरब दुनिया के राजनीतिक नेता, शासक जो अपने लोगों को बताते हैं कि क्या क्या है, रियाद में इकट्ठा हुए थे. लेकिन 2009 में काहिरा यूनिवर्सिटी में छात्रों के सामने राष्ट्रपति बराक ओबामा के भाषण के विपरीत इस बार लोग स्वयं मौजूद नहीं थे. 

उदारता की कला

रियाद में बैठक को संबोधित करते हुये ट्रंप ने जो कहा वह काफी हद तक सही था. लेकिन ट्रंप का सौहार्दपूर्ण लहजा, उनके उठाये गये कदमों के मुकाबले बिल्कुल अलग था, मसलन छह इस्लामी देशों के नागरिकों का अमेरिका में प्रवेश करने पर प्रतिबंध लगाने का प्रयास. इस वर्ष की शुरुआत में यात्रा प्रतिबंध पर बहस में ट्रंप ने रियाद से बिल्कुल अलग लहजा अपनाया था.

यहां ट्रंप ने उदारता दिखाई. उन्होंने कहा कि मध्य पूर्व में फैली वर्तमान हिंसा "विभिन्न धर्मों, विभिन्न संप्रदायों या विभिन्न सभ्यताओं के बीच की लड़ाई नहीं है" बल्कि यह "मानव जीवन को खत्म करना चाहतने वाले "बर्बर अपराधियों" और जीवन को बचाना चाहने वाले "सभी धर्मों के सभ्य लोगों" के बीच की लड़ाई है. ट्रंप का आश्वासन कि "अमेरिका लोगों को यह बताने के लिये यहां नहीं है कि कैसे रहना चाहिये, क्या करना चाहिये, कैसे प्रार्थना करनी चाहिए" भी रचनात्मक था. इस्लामिक चरमपंथियों के खिलाफ कार्रवाई करने अरब नेताओं से की गई अपील विनम्र और उपयुक्त अंदाज में कही गई.

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विरोधाभास

बहरहाल, इस भाषण ने कुछ असहजता भी छोड़ी क्योंकि एक दिन पहले अपनी इसी यात्रा पर ट्रंप ने जो टिप्पणियां की थी वह इससे बिल्कुल भी मेल नहीं खाती थी. ट्रंप ने सऊदी अरब के साथ 110 अरब डॉलर के हथियार सौदे की घोषणा करते हुये इसे "सुंदर सैन्य उपकरण" कहा और "महान सुरक्षा" की गारंटी देने वाला बताया था.

यमन के लोगों के लिये यह किसी मजाक से कम नहीं जहां सऊदी अरब अब भी बम गिरा रहा है. इतना ही नहीं मिस्र के लोग क्या सोचते होंगे, जहां की सरकार मानवाधिकार के मानदंडों को स्वयं ध्वस्त करने में लगी है. अपनी यात्रा के दौरान ट्रंप ने इसकी सुरक्षा व्यवस्था को "बहुत मजबूत" बताते हुये खूब प्रशंसा की, जैसे कि राजनीतिक, आर्थिक और संवैधानिक खामियां अस्तित्व में ही न हों, जिनपर वहां का जिहाद पनप रहा है. 

अनकहे का असर

ट्रंप का यह भाषणवह काला पहलू भी दिखाता है कि कैसे वह लम्हे की रवानगी में बह जाते हैं. राष्ट्रपति उस वक्त और माहौल पर इतना केंद्रित हो जाते हैं कि वह शायद ही दूसरे पक्ष या अन्य पहलुओं पर विचार करते हैं. सउदी अरब में मानवाधिकारों की मुश्किल परिस्थिति, उसका ईरान के बारे में बढञा चढ़ा डर, ये सब विनम्रता से कहा जाये तो "महान सुरक्षा" में शायद ही योगदान देते हैं.

ट्रंप ने इस्लाम के बारे में अपने भाषण में जो कुछ भी कहा उसे उचित और ठीक माना जा सकता है. इसलिए अब यह समझने में अधिक मुश्किल है कि वे निर्णायक मुद्दों को टालते क्यों नजर आते हैं? हालांकि भाषण प्रोत्साहित करने वाला जरूर था लेकिन इससे कोई नतीजा निकले ऐसी संभावना नहीं है.