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तबाह होते बचपन को बचाएं कैसे!

१९ सितम्बर २०१०

हाल ही में एक खबर आई कि दिल्ली में एक स्कूल बस का ड्राइवर बच्चों का यौन शोषण करता रहा. यह खतरनाक स्थिति है क्योंकि भरोसा टूटता है. ऐसे में क्या करें?

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तस्वीर: BilderBox

देश की राजधानी दिल्ली, आसमान को स्पर्श करती उपलब्धियां, राजनैतिक गलियारों में चमचमाती गाड़‍ियां, 24 सितंबर के मंदिर-मस्जिद फैसले की कवायदें और एक बेबस मां की दारूण चीत्कार. क्लैप-बाइ-क्लैप उभरती राजधानी की इन तस्वीरों में सबसे अंत में आती है वह मां, जिसके तीन बच्चों को एक शख्स क्रूरता की सारी सीमाएं तोड़कर लूटता रहा, बर्बाद करता रहा. उनके बचपन की मासूमियत को छलता रहा. मानवीयता की तबाही में अब और क्या शेष रह जाता है?

राजधानी दिल्ली में 12 वर्षीय बालिका और उसके दो नाबालिग भाइयों के साथ वैन चालक ललित रातावाल यौन उत्पीड़न करता रहा और इंसानियत के नाम पर कलंक लगाता रहा. रातावाल कथित रूप से इन बच्चों को स्कूल ले जाने के बजाय किसी अज्ञात जगह पर ले जाकर नशीले पदार्थ खिलाकर उनका यौन उत्पीड़न करता. उसने इन बच्चों को धमकी दे रखी थी कि यदि उन्होंने अपनी मां से कुछ बताया तो उन्हें जान से मार देगा. पीड़ित लड़की की मेडिकल जांच में उसके यौन उत्पीड़न की पुष्टि हुई है.

हमने बात की, कुछ ऐसी मांओं से जिनके कच्चे और कोमल बच्चे, स्कूल के भरोसे 6 से 8 घंटे तक उनसे दूर रहते हैं. इस बीच कितनी बार उनका मन सहमता है, कितनी बार वे अपने नन्हे बच्चों को लेकर व्यथित होती हैं. हमने जानना चाहा शहर के कुछ युवाओं से कि इस सारे प्रकरण को वे किस नजरिए से देखते हैं.

असभ्य होते जा रहे हैं

ममता शिंदे (गृहणी)

इस डर से हांलाकि हम अपने बच्चों को घर में तो नहीं रख सकते लेकिन इस तरह की घटनाएं मन को भीतर तक हिलाकर रख देती हैं. मेरी दो बच्चियां हैं और दोनों ही शहर के बड़े स्कूल में जाती हैं. जब तक वे घर से दूर रहती हैं मेरा एक-एक पल भारी रहता है. अनजान लोगों पर विश्वास तो करना पड़ता है मगर मैंने अपनी बच्चियों को समझा रखा है कि ड्राइवर से कितनी बातें करनी है. यहां तक कि स्कूल की भी हर बात उनसे पूछती हूं. बावजूद इसके डर तो लगता है. हमारा जमाना इतना गिरा हुआ तो कतई नहीं था. समझ में नहीं आता कि हम तरक्की कर रहे हैं या मानसिक रूप से और असभ्य होते जा रहे हैं.

'बच्चे' मुद्दा क्यों नहीं बनते

आराधना पीटर (शिक्षिका)

ऐसी खबरें इतना डरा देती हैं कि लगता है यह दुनिया रहने लायक नहीं रही. मैं एक बच्चे की मां होने के अलावा टीचर भी हूं. मुझे कभी अपने बच्चे और उन बच्चों में फर्क नहीं लगा. मैं यूं भी स्वभाव से भावुक हूं इसलिए बच्चों की तकलीफें समझने की कोशिश करती हूं. दुख तो तब होता है कि जब इस देश में मंदिर-मस्जिद तो मुद्दे बनते हैं, मगर अपने ही देश के बच्चों की करूण पुकार सुनने में हम बहरे हो जाते हैं. वे बच्चे जिन्हें मजबूत बनाना हमारी जिम्मेदारी है उनकी आंखों में छुपे खौफ को हम क्यों नहीं पढ़ पाते? क्या यह भी एक देश की बड़ी समस्या नहीं है कि हमारे बच्चे खुलकर और खिलकर जी नहीं पा रहे हैं?

एक आशंका बनी रहती है

सुनिता अग्रवाल (उद्यमी)

एक मां, जिसके तीन बच्चे इस तरह बर्बाद किए गए हों उसके दर्द को महसूस करने के लिए कलेजा चाहिए. हमें उस मां की आत्मा में उतर कर देखना होगा कि इस समय उस पर क्या गुजर रही है. यह कल हमारे बच्चों के साथ भी हो सकता है. हम ऐसे मसलों में विचार तो व्यक्त कर सकते हैं लेकिन कुछ करने के स्तर पर कितने बेबस हो जाते हैं. आज तक निठारी कांड के जख्म नहीं भरे हैं. आरुषि कांड आज भी रहस्य बना है. ऐसे में यह घटना दिल को दहला देने वाली है. मेरे बच्चे जब तक लौटकर मुझसे गले नहीं मिल लेते एक आशंका बनी रहती है जिसे बार-बार सिर झटक कर हटाना पड़ता है. काम में मन लगाना पड़ता है. समाधान की दिशा में यही हो सकता है कि गुम होती संस्कृति और मानवीयता को सहेजना होगा. अपराधियों पर नकेल कसनी होगी. स्कूलों में बिना सोचे-समझे कर्मचारी नियुक्त नहीं होने चाहिए. यह किसी एक की नहीं बल्कि हम सबकी जिम्मेदारी है कि सुरक्षा और सात्विकता बनी रहे, बची रहे.

NDसमाज का खुलापन दोषी है

अनुभव जोशी ( सॉफ्टवेयर इंजीनियर)

ऐसे दरिंदों को इस समाज में रहने का कोई हक नहीं. एक पहलू यह भी विचारणीय है कि ऐसी घटनाएं क्यों बढ़ रही हैं, उन कारणों की तलाश करना होगी. आखिर जीवन की वह कौन सी कुंठा है जो निरीह बच्चों को पीड़‍ि‍त कर संतुष्टि पाती है? समाज में बढ़ रहे सेक्स, हिंसा, अपराध, असंतोष और यौन विकृतियां ऐसे कृत्यों को अंजाम दे रही हैं. समाज में बढ़ता खुलापन इसका अधिक दोषी है.

आजादी का अपमान है

डॉ. वैदिक खरगोणकर (डेंटिस्ट)

यह सरासर हमारी आजादी का अपमान है. यह देश क्या अब खुलकर रहने लायक भी नहीं रहा? देश के नेताओं को अपनी राजनीति से फुर्सत मिले तो एक बार इस देश की अस्मिता बचाने के बारे में भी सोचना चाहिए. मैं मानता हूं कि यह सिर्फ उन्हीं का काम नहीं है. मगर उनकी सोच और चिंतन का विषय तो इसे बनना होगा क्योंकि यह देश की इज्जत का भी सवाल है. खुलेपन के लिए विदेशी संस्कृति को गाली देने वाले हम लोगों को यह भी समझना होगा कि वहां से छोटे बच्चों के उत्पीड़न की उतनी खबरें नहीं आतीं जितनी हमारे देश में आ रही हैं. और जिस वीभत्सता के साथ आ रही है वह निहायत ही शर्मनाक है.


जिंदगियां तबाह हो रही हैं

प्रवाह गौर ( विद्यार्थी, एमबीए)

इस खबर को पूरी तरह से देखने की हिम्मत अभी तक नहीं जुटा पाया हूं. जब-जब मुझे उन बच्चों की मां की तस्वीर टीवी पर दिखाई दी मेरा गला रूंध गया और मैं सामने नहीं रह सका. सोचिए कि कैसे इस देश में कई जिंदगियां यूं ही तबाह हो रही है.

रिपोर्टः स्मृति जोशी (सौजन्य: वेबदुनिया)

संपादनः वी कुमार