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तालिबान से लोहा लेती फिल्में

१७ नवम्बर २०१०

पाकिस्तान में आतंकवाद से त्रस्त तहजीब को बचाने के लिए फिल्मों का सहारा लिया जा रहा है. पश्चिमोत्तर इलाके के कुछ फिल्मकार बंदूक का मुकाबला कला से कर रहे है. मकसद विस्फोटों के गुबार में मरती तहजीब को बचाना है.

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पश्तो फिल्म का एक सीनतस्वीर: Pushto Film

पाकिस्तान में खैबर पख्तून ख्वाह और बलूचिस्तान प्रांत बरबस अपनी ओर खींचती पश्तो जुबान की चासनी में लिपटी संस्कृति के लिए जाने जाते रहे हैं. लेकिन अब हालात बदल गए हैं. इस इलाके में अब तंबूरे की तान पर अलमस्त झूमते फकीर नहीं, दिखते बल्कि फकीरों जैसे लिबास में ही खूंखार दहशतगर्द मिल जाते हैं. एक ओर हुकूमत आतंकियों का खात्मा करती दिखती है तो दूसरी ओर कला के कुछ पुजारियों ने आतंक के साए में दम तोड़ती तहजीब को बचाने का बीड़ा उठाया है.

Deutscher film festival Lahore
लाहौर में जर्मन फिल्मों का मेलातस्वीर: DW

अब इस इलाके में इश्क को इबादत बताने का पाठ पढ़ाने वाली प्रेम कहानियों का ताना बाना बुना जा रहा है. तालिबान और अल कायदा से बेखौफ युवा फिल्मकार अजब गुल इस काम को आगे बढ़ा रहे है. वह कहते हैं कि इस इलाके की लड़ाका संस्कृति ने बड़े बड़े शूरमाओं को पैदा किया है, आतंकवादियों को नहीं. इसलिए आतंक के नाम पर पश्तून संस्कृति पर कलंक का जो धब्बा लग गया है उसे फिल्मों के जरिए ही मिटाया जा सकता है.

वह कहते हैं कि 1980 और 90 के दशक में पश्तून फिल्म इंडस्ट्री अपने पूरे शबाब पर थी लेकिन बदले हालात ने इसकी कमर तोड़ कर रख दी. हालांकि इसके लिए वह पश्तून कहानियों पर आधारित तोड़ मरोड़ कर पेश की गई बॉलीवुड फिल्मों और यहां तक कि भारत की खुफिया एजेंसी रॉ को भी दोषी मानते हैं.

गुल का कहना है कि किसी भी समाज का भविष्य युवा होते हैं. लेकिन इस इलाके में अशिक्षा और बेरोजगारी के कारण नौजवान पीढ़ी को गुमराह करना आसान है और यही काम कठमुल्लों के भेष में दहशतगर्द कर रहे हैं. ऐसे में मनोरंजन के साथ युवाओं को तहजीब से परिचित कराना ही भटके को राह दिखाने का सबसे आसान रास्ता है.

Schauspielerin Kirron Kher Indien beim Internationalen Filmfestival in Locarno
कई पाकिस्तानी फिल्मों में काम कर चुकी हैं किरण खेरतस्वीर: picture-alliance / dpa/dpaweb

हालांकि सुरक्षा और संसाधनों के संकट को देखते हुए गुल और अन्य फिल्मकारों को लाहौर में अपने स्टूडियो बनाकर काम करना पड़ रहा है. इसकी बदौलत साल भर में औसतन दर्जन भर पश्तून फिल्में बन जाती हैं.

पश्तून फिल्म संघ के अध्यक्ष गुल अकबर खान अफरीदी का कहना है कि जब पश्तून फिल्मों का जोर था उस जमाने में सालाना 40 फिल्में तक बन जाती थीं. लेकिन मौजूदा हालात में इतना काम भी संतोषजनक है. वह कहते हैं "अगर सुरक्षा और संसाधनों की समस्या से निजात मिल जाए तो इंशा अल्लाह हालत सुधरते देर नहीं लगेगी."

रिपोर्टः एएफपी/निर्मल

संपादनः ए कुमार

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