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शिक्षा

देश में आमूल बदलाव के लिए सिर्फ 30-35 साल

२६ मई २०१७

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के आर्थिक कार्यक्रम का एक महत्वपूर्ण पाया मेक इन इंडिया है. विदेशी निवेशकों के लिए माहौल तैयार करना जरूरी है. लाइपजिग के मैनेजमेंट स्कूल में गेस्ट प्रोफेसर शैलेंद्र राय से डॉयचे वेले की बातचीत.

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Indien Schüler bei einer Prüfung
तस्वीर: Imago/Hindustan Times

डॉयचे वेले: मोदी सरकार नए वादों इरादों के साथ सत्ता में आई. क्या कुछ नया आप देखते हैं और नए इंडिया के देश कितना तैयार है?

प्रो. शैलेंद्र राय: सत्ता में आने के बाद मोदी सरकार ने कई पहलें शुरू कीं, जैसे स्किल इंडिया, स्टार्ट अप इंडिया, स्किल इंडिया, डिजिटल इंडिया या फिर स्मार्ट सिटीज हो. ये सारी बातें और आइडिया नए भारत के लिए हैं. लेकिन मुझे सबसे बड़ी कमी यह दिखती है कि हमारी शिक्षा प्रणाली ऐसी नहीं है कि हमारे युवा नए भारत को बनाने में योगदान दे सकें. हाल ही में मैंने एक सर्वे पढ़ा जिसके मुताबिक भारतीय अर्थव्यवस्था तो सात प्रतिशत से ज्यादा की रफ्तार से आगे बढ़ रही है, लेकिन रोजगार की वृद्धि दर एक प्रतिशत है. यही नहीं, पिछले दिनों एक रिपोर्ट आई कि आंध्र प्रदेश में आईटी कंपनियों ने इंटरव्यूज में पाया कि 90 प्रतिशत इंजीनियर ऐसे हैं ही नहीं कि उन्हें काम पर रखा जा सके. तो इससे क्या पता चलता है. नए इंडिया का मतलब इंडस्ट्री 4.0 में जाने की बात करना है, जहां पर फिजीकल, डिजीटल और बायोलॉजिकल साइंस का संगम होने जा रहा है. पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था बदल रही है. हमारी अर्थव्यवस्था भी बदलेगी.

अभी जर्मनी के हनोवर शहर में एक प्रदर्शनी में दिखाया गया कि मशीनों के बीच संवाद शुरू हो गया है. यानी जिस लेबर सेक्टर में इंसानों की जरूरत होती थी वहां अब रोबोट काम करेगा, वही इंस्ट्रक्शन देगा. थ्री डी प्रिंटिंग का बहुत तेजी से इस्तेमाल हो रहा है. जर्मनी में एडीडास कंपनी ने अपना प्लांट खोला है जिसमें सिर्फ रोबोट हैं और वे थ्रीडी प्रिंटिंग इस्तेमाल करके जूते बना रहे हैं. ड्राइवरलेस कार आ रही है, आर्टिफिशल इंटेलिजेंस आ रही है, वर्चुअल कंपनी बन रही हैं. इतनी चीजें हो रही हैं. लेकिन भारत का एजुकेशन सिस्टम कहां है. वह सिर्फ 19वीं या 20वीं सदी के भारत और कंपनियों को सपोर्ट कर सकता था. लेकिन वह 21वीं सदी के नए इंडिया को सपोर्ट नहीं कर पायेगा.

Prof. Shailendra Rai, Economic Expert
प्रो. शैलेंद्र रायतस्वीर: DW/M. Jha

जिस बदलाव की बात आप कर रहे हैं, उसे करना कितना चुनौतीपूर्ण होगा?

चुनौती ज्यादा नहीं है. समस्या इंटीग्रिटी की है. बुनियादी तौर पर देखें तो प्राइमरी स्कूल को ले लीजिए. सरकारी स्कूलों में टीचरों का वेतन कम नहीं है. उससे कम वेतन मे प्राइवेट स्कूल में टीचर काम करते हैं. लेकिन बात जब प्रदर्शन की आती है तो प्राइवेट स्कूल बाजी मार जाते हैं. पुराने समय में आप देखें तो गुरुकुलों में सोच और विचारों पर जोर दिया जाता था. यानी आप पर्यावरण को देखिए समस्या को समझिये और आइए उस बात करके हम समाधान निकाल लेंगे. लेकिन अब सारा ध्यान इस बात पर है कि कितना ज्यादा आप रट सकते हैं. स्कूल में अगर आपने क्रिएटिव होकर कुछ बोल दिया तो टीचर आपको जीरो नंबर या फिर नेगेटिव नंबर दे देगा. हमारा सिस्टम इस तरह का बन गया है. इस सिस्टम को बदलना होगा. एक उद्यमी सोच लानी होगी. लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि हर आदमी को आप बिनजेसमैन बना देंगे, बल्कि इसका मतलब यह है कि समय से आगे सोचना है. आज सरकार जो भी स्किल या कौशल विकास के लिए योजना चला रही है वह तभी कामयाब होंगी जब शिक्षा व्यवस्था में क्रांतिकारी बदलाव होगा. वह तभी होगा जब हम उद्यमी सोच पर ध्यान दें.

प्रधानमंत्री मोदी युवाओं में बहुत लोकप्रिय हैं. अकसर मोदी युवाओं की बात भी करते हैं. तो क्या जो भी बातें वह कहते हैं, वे सच के धरातल नहीं उतर रही हैं?

देखिए 2050 तक हमारे पास एक अरब ऐसे लोग होंगे जिन्हें काम की जरूरत होगी. इसलिए आपके पास सिर्फ 30-35 साल हैं. अगर आप इसका उपयोग नहीं कर पाएंगे तो हमें लगता है कि भारत अमीर बनने से पहले ही बूढ़ा न हो जाए. आपको इसी 30-35 साल को इस्तेमाल करना है. अभी तो हालत यह है कि किसी ग्रामीण इलाके में किसी स्कूल या कॉलेज में चले जाइए, तो बच्चों को कुछ आता ही नहीं है. मैं यह नहीं कहता कि बच्चे खराब हैं. यह वही बच्चे हैं जिन्होंने सिलिकॉन वैली बना दी. लेकिन हमारा सिस्टम ऐसा हो गया है कि हम उन्हें कुछ दे ही नहीं पा रहे हैं. इसलिए सरकार को सब योजनाएं बंद करके शिक्षा में क्रांति पर फोकस करना चाहिए. अभी हमारे पास पांच से छह लाख इंजीनियर हर साल निकलते हैं, लेकिन अगर उन्हें काम पर नहीं रखा जा सकता है तो फिर इंजीनियरिंग करने का क्या फायदा. सरकार बात तो करती है कि शिक्षा प्रणाली को बदलना है, लेकिन कैसे बदलना है कुछ पता नहीं है.

Indien Eltern helfen Schülern beim schummeln
तस्वीर: picture-alliance/AP Photo

आप जर्मनी में रह रहे हैं. यहां की शिक्षा व्यवस्था भी देखी है. आप इसे जब भारतीय संदर्भ में देखते हैं तो आपके जेहन में क्या आता है?

जब मैं जर्मनी के स्कूल सिस्टम को देखता हूं तो भारत के सिस्टम को लेकर बहुत दुख होता है. यहां पर हर आदमी अपने बच्चे को सरकारी स्कूल में भेजना चाहता है. लेकिन भारत में हर आदमी प्राइवेट स्कूल में भेजना चाहता है. इससे पता चलता है कि कितना अंतर है. बच्चा जब स्कूल में होता है तभी उसे और उसके माता पिता को पता चल जाता है कि उसे किस तरह की ट्रेनिंग देनी है. इसे हायर एजुकेशन में जाना है या फिर उसे प्रोफेशनल ट्रेनिंग देनी है. वहीं से उसका भविष्य बन जाता है. अहम बात यह है कि जर्मनी में हाथ से काम करने वालों का सम्मान है. भारत में तो धारणा बन गयी है कि जो आदमी ऑफिस में काम करेगा, वही अच्छी नौकरी कर रहा है. यह एक सांस्कृतिक अंतर है. हम भारत में इसे हूबहू नहीं लागू कर सकते हैं. लेकिन हां, कुछ सालों में अगर हम भारत में सिस्टम को ऐसा बनाएं तो भारत जर्मनी से आगे निकल जाएगा. टेक्नीकल भाषा में कहें तो मैं भारत को एक डेस्कटॉप इकॉनोमी मानता हूं और भारत की मोबाइल इकॉनोमी है. भारत युवा लोगों का देश है, उन्हें दिशा और ट्रेनिंग देने की जरूरत है. तभी नया भारत बन सकता है.

भारत में आज प्राइवेट यूनिवर्सिटी बहुत आ रही हैं. ऐसे में शिक्षा का औद्योगिकीकरण स्किल के विकास में एक अड़चन है या फिर उससे नए मौके खुल रहे हैं?

दोनों ही बातें हैं. अगर आप प्राइवेट इंजीनियरिंग कॉलेजों की बात करें तो वे तो शोषण कर रहे हैं. क्योंकि आपकी आबादी इतनी ज्यादा है और सरकारी संस्थानों में सीटें बहुत कम हैं. ऐसे में आप प्राइवेट संस्थानों में ही जाते हैं. लेकिन इंजीनियरिंग और मेडिकल कॉलेज में इंफ्रास्ट्रक्टर होना चाहिए. बिना इंफ्रास्ट्रक्टर ही वे लोगों को डिग्री दे रहे हैं. इसी से समस्या हो रही है. क्वलिटी कंट्रोल नहीं हो रही है. यह आईआईटी की समस्या नहीं है. प्राइवेट इंजीनियरिंग कॉलेजी की समस्या है.

लेकिन एक दूसरा ट्रेंड भी देखने को मिल रहा है. बड़े बड़े कारोबारी घरानों ने यूनिवर्सिटी खोली हैं. जैसे शिव नादर ने यूनिवर्सिटी शुरू की है. उनका फोकस इंजीनियरिंग पर नहीं बल्कि सोशल साइंस पर है, लॉ पर है. इनकी क्वालिटी बहुत अच्छी है. बात यह नहीं है कि शिक्षा का औद्योगिकीकरण हो रहा है. अगर समाज के फायदे के शिक्षा दी जा रही है तो अच्छा है. बस फीस किफायती रखनी होगी, वरना सिर्फ अमीर लोगों के बच्चे ही वहां पढ़ पाएंगे.

प्रो. शैलेंद्र कुमार राय लाइपजिग के एचएचएल ग्रैजुएट स्कूल ऑफ मैनेजमेंट में गेस्ट प्रोफेसर हैं.

इंटरव्यू: अशोक कुमार

Indien Schüler Symbolbild
तस्वीर: AFP/Getty Images/S. Hussain