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दोहरा बोझ झेल रही हैं कामकाजी महिलाएं

विश्वरत्न श्रीवास्तव८ मार्च २०१६

रोजगार के हर क्षेत्र में महिलाएं पुरुषों का वर्चस्व तोड़ रही हैं. खासकर व्यावसायिक शिक्षा प्राप्त महिलाओं के काम का दायरा बहुत बढ़ा है. लेकिन कामयाबी के बावजूद परिवार से जो सहयोग उन्हें मिलना चाहिए, वह नहीं मिल रहा है.

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Indien Rote Brigaden
तस्वीर: Red brigades Lucknow

आज के दौर में महिलाएं शिक्षा, पत्रकारिता, कानून, चिकित्सा या इंजीनियरिंग के क्षेत्र में उल्लेखनीय सेवाएं दे रही हैं. पुलिस और सेना में भी वे जिम्मेदारी निभा रही रही है. पर ज्यादातर महिलाओं को पेशेवर जिम्मेदारियों के साथ ही घर की जि़म्मेदारी भी उठानी पड़ती है. जिसका उनके स्वास्थ्य पर विपरीत असर पड़ता है.

दो नावों पर सवार

बदलते वक्त ने महिलाओं को आर्थिक, शैक्षिक और सामाजिक रूप से सशक्त किया है और उनकी हैसियत एवं सम्मान में वृद्धि हुई है. इसके बावजूद अगर कुछ नहीं बदला तो वह है महिलाओं की घरेलू जि़म्मेदारी. खाना बनाना और बच्चों की देखभाल अभी भी महिलाओं का ही काम माना जाता है. यानी अब महिलाओं को दोहरी जिम्मेदारी निभानी पड़ रही है. घरेलू महिलाओं की तुलना में कामकाजी महिलाओं पर काम का बोझ ज्यादा है. इन महिलाओं को अपने कार्यक्षेत्र और घर, दोनों को संभालने के लिए ज्यादा मेहनत करनी पड़ रही है. घर और ऑफिस के बीच सामंजस्य बिठाने में हुई दिक्कत के बाद नौकरी छोड़ने वाली कल्पना कहती हैं, "8 घंटे ऑफिस में, 3 घंटे ट्रेन-ऑटो में और इसके बाद घर के कामकाज के बीच तालमेल बिठाना मुश्किल होता है."

Symbolbild hervorragend ausgebildete IT-Spezialisten in Indien
तस्वीर: picture-alliance/dpa

कारोबारी संगठन एसोचैम द्वारा किए गए एक सर्वे से पता चलता है कि मां बनने के बाद कल्पना की ही तरह कई महिलाएं नौकरी छोड़ देती हैं. सर्वे के मुताबिक 40 प्रतिशत महिलाएं अपने बच्चों को पालने के लिए यह फैसला लेती हैं. प्रोफेसर अर्चना सिंह कहती हैं कि कामकाजी महिलाओं की स्थिति ‘दो नावों में सवार' व्यक्ति के समान होती है क्योंकि एक ओर उसे ‘ऑक्यूपेशनल स्ट्रेस' या कामकाज का तनाव झेलना पड़ता है तो दूसरी ओर उसे घरेलू मोर्चे पर भी परिवार को खुश रखने की जिम्मेदारी का निभानी पड़ती है.

सेहत पर असर

स्वास्थ विशेषज्ञों के अनुसार ऑफिस और घर संभालने की दोहरी जिम्मेदारी के कारण तनाव बढ़ता है और बीमारियां पैदा होती हैं. डॉ. रमा कहती हैं कि अपनी जिम्मेदारियों को पूरा करने के चक्कर में महिलाएं अक्सर अपनी सेहत को नजरअंदाज करती है. एसोचैम के सर्वे के अनुसार 78 फीसदी कामकाजी महिलाओं को कोई ना कोई लाइफस्टाइल डिसॉर्डर है. 42 फीसदी को पीठदर्द, मोटापा, अवसाद, मधुमेह, उच्च रक्तचाप की शिकायत है. इसी सर्वे के अनुसार कामकाजी महिलाओं में दिल की बीमारी का जोखिम भी तेजी से बढ़ रहा है. 60 प्रतिशत महिलाओं को 35 साल की उम्र तक दिल की बीमारी होने का खतरा है. 32 से 58 वर्ष उम्र की महिलाओं के बीच हुए इस सर्वे के अनुसार 83 प्रतिशत महिलाएं किसी तरह का व्यायाम नहीं करती और 57 फीसदी महिलाएं खाने में फल-सब्जी का कम उपयोग करती हैं.

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तस्वीर: NOAH SEELAM/AFP/Getty Images

स्त्री रोग विशेषज्ञ डॉ दिशा शुक्ला का कहना है कि सिर्फ लाइफस्टायल डिसॉर्डर ही नहीं बल्कि कामकाजी महिलाएं अन्य बीमारियों की चपेट में जल्दी आ जाती हैं. सेहत के प्रति लापरवाही भी इसके लिए जिम्मेदार है. लापरवाही की बात को नकारते हुए कविता दास नौकरी और घर के बीच सामंजस्य को मुश्किल मानती हैं. उनके अनुसार, "खुद के सेहत के लिए समय निकाल पाना मुश्किल है. खासतौर पर जब सास ससुर भी साथ रहते हैं." डॉ दिशा शुक्ला के अनुसार देश में महिलाओं में पॉलीसिस्टिस ओवेरिन सिंड्रोम यानी पीसीओएस की शिकायतें भी बढ़ रही हैं. यह समस्या कामकाजी महिलाओं में ज्यादा पायी जाती है. वे कहती हैं कि पीसीओएस से ग्रस्त हो जाने पर मरीज बार-बार बीमार पड़ता है. इससे महिलाओं में इनफर्टिलिटी की समस्या भी उत्पन्न हो जाती है.

दोहरी जिम्मेदारियों की बोझ के चलते तनाव एवं अन्य स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं से घिर चुकी महिलाओं को अब अपने लिए समय निकालने की जरूरत है. अर्चना सिंह कहती हैं कि अपनी स्थिति के लिए कुछ हद तक महिला खुद जिम्मेदार है. खाना बनाने से लेकर बच्चों की परवरिश को वह अपनी प्राथमिकता मानती है. इस सोच में बदलाव जरूरी है. जिन घरों में पति या अन्य परिजन कामकाज में हाथ बंटाते हैं वहां महिलाओं का स्वास्थ अपेक्षाकृत बेहतर पाया जाता है. स्वस्थ महिला, स्वस्थ परिवार और स्वस्थ समाज का निर्माण करती है इसलिए महिलाओं को तनाव मुक्त और काम के बोझ से मुक्त रखना परिवार की जिम्मेदारी है.

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