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पाक-अमेरिकी संबंधों पर जर्मन प्रेस की नज़र

३ अप्रैल २०१०

पिछले हफ़्ते जर्मन समाचार साधनों में भारत और पाकिस्तान की काफ़ी चर्चा हुई, व इस सिलसिले में विभिन्न पहलुओं पर ध्यान दिया गया.

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तस्वीर: DW

भारत और चीन अब विश्व राजनीति की पहली पांत में अपनी जगह की मांग कर रहे हैं. उन्हें अपने आर्थिक विकास पर भरोसा है और वे विश्व में लिए जाने वाले महत्वपूर्ण निर्णयों में भी भागीदारी चाहते हैं - जर्मन समाचार पत्र फ़्रांकफ़ुर्टर आलगेमाइने त्साइटुंग का कहना है. समाचार पत्र में कहा गया है कि क्या वे ज़िम्मेदारी लेने के लिए भी तैयार हैं. विश्व जलवायु सम्मेलन में इस सिलसिले में कुछ ग़लतफ़हमियां दूर हो गई हैं. आगे कहा गया है -

भारत और चीन के दृष्टिकोण में एक समानता है, जिससे पश्चिमी दुनिया परेशान है और आगे भी परेशान रहेगा - वे उसकी विषय सूची में कतई दिलचस्पी नहीं दिखा रहे हैं और सोच रहे हैं कि जब वे खुद चोटी पर आ जाएंगे, तो नियम बदल सकेंगे. और ये ऐसे नियम हैं, जिनके चलते वे आर्थिक रूप से आगे बढ़ सके हैं...पश्चिम के देश इन नई ताकतों को रिझाने की कितनी ही कोशिश करें, उन्हें अक्सर यह भोगना पड़ेगा कि दोनों देश इंतज़ार करते हुए अपनी ज़िम्मेदारियों को टालना चाहते हैं और इसके बावजूद अंतर्राष्ट्रीय सहयोग का परचम उठाए रहते हैं. सारी दुनिया में एक दूसरे पर निर्भर होने के आज के दौर में भी अलग अलग देशों के अलग अलग स्वार्थ और लक्ष्य हैं. और पश्चिम के लक्ष्य कभी कभी छोड़ने पड़ सकते हैं, क्योंकि दूसरे उन्हें स्वीकार नहीं करते हैं, या जैसा कि ईरान के मामले में हुआ, उनका भीतरघात करते हैं.

एक दूसरा विषय - अमेरिका और पाकिस्तान के बीच तथाकथित स्ट्रैटेजिक डायलॉग. बर्लिन के दैनिक टागेसत्साइटुंग का कहना है कि बातचीत से ऐसा लगा कि द्विपक्षीय संबंधों में आमूल सुधार हुआ है. समाचार पत्र का कहना है -

पाकिस्तानी विदेश मंत्री शाह महमूद क़ुरेशी का कहना है कि पिछले दो सालों के दौरान उनकी सरकार जिस नीति पर चलती रही है, अमेरिका ने अब काफ़ी हद तक उसका समर्थन करने लगा है. पिछले समय में विश्वास में कमी पैदा हो गई थी, लेकिन अब उसका रुख़ बिल्कुल पलट चुका है. अमेरिकी विदेश मंत्री हिलैरी क्लिंटन की राय में दोनों सरकारें ग़लतफ़हमी के वर्षों को पाटने के दौर में हैं. पाकिस्तान के लिए यह महत्वपूर्ण है कि वह भारत से पीछे न रह जाए, बुश के ज़माने में अमेरिका के साथ जिसकी नज़दीकी बहुत बढ़ गई थी. क्योंकि अपने देश में इस्लामपंथी आतंक के ख़तरे के बावजूद पाकिस्तान के स्ट्रैटेजिस्ट अभी भी भारत को अपना मुख्य दुश्मन समझते हैं.

वैसे आर्थिक समाचार पत्र फ़ाइनेंशियल टाइम्स डॉएचलांड का कहना है कि इस स्ट्रैटेजिक डायलॉग में माहौल में बेहतरी के साथ-साथ अमेरिका की ओर से आर्थिक मदद का वादा भी काफ़ी महत्वपूर्ण था. समाचार पत्र का कहना है कि पाकिस्तान की आर्थिक स्थिति पहले की तरह बदतरीन बनी हुई है. पाकिस्तान की वित्तीय स्थिति के बारे में समाचार पत्र में कहा गया है -

अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष की मदद से देश की रक्षा के लगभग डेढ़ साल बाद पाकिस्तान अब भी पहले से कहीं ज़्यादा दाता देशों, ख़ासकर अमेरिका की मदद पर निर्भर है. आर्थिक वृद्धि की दर इतनी कम है, कि पिछले दस सालों में कभी ऐसी नहीं थी. विश्वव्यापी संकट के बाद जब भारत की अर्थनीति में आठ प्रतिशत से अधिक वृद्धि देखी जा रही है, पाकिस्तान की अर्थनीति सिकुड़ती जा रही है. विदेशी निवेश घटता जा रहा है. क्लिंटन के अनुसार अब अमेरिका मदद के लिए आगे आते हुए पाकिस्तान की मौलिक संरचना में, ख़ासकर उर्जा के क्षेत्र में निवेश करेगा. जर्मन मैनेजरों का कहना है कि वहां निवेश के मौक़े तो दूसरे मुल्कों से बेहतर हैं, लेकिन सुरक्षा की स्थिति को देखते हुए जोखिम भी बहुत ज़्यादा है.

पिछले हफ़्ते के दौरान एक सामाजिक समस्या की ओर भी जर्मन समाचार साधनों की नज़र गई, जिसका रिश्ता भारत और जर्मनी की कानूनी व्यवस्थाओं से भी है. सरोगेट मदर या किराए की कोख की समस्या. विदेश के अनेक परिवार अपने बच्चे की ख़ातिर भारत में सरोगेट मदर का सहारा लेते हैं. कानून उदार हैं और साथ ही यह सस्ता पड़ता है. नोए त्स्युरिषर त्साइटुंग का इस सिलसिले में कहना है -

सभी ग्राहक विदेश से नहीं आते हैं. परिवार केंद्रिक भारतीय समाज में बच्चा न होना अक्सर औरतों के लिए बेहद शर्म की बात होती है. बहुत से भारतीय परिवार, जिनके बच्चे नहीं होते, इसका सहारा लेते हैं. पटेल के क्लिनिक में दो-तिहाई ऐसे मामले भारतीय दंपतियों से संबंधित हैं, और सिर्फ़ एक-तिहाई विदेशी हैं.

गैरकानूनी भले ही न हो, लेकिन भारत में यह विवादास्पद तो है ही - नोए त्स्युरिषर त्साइटुंग में कहा गया है -

भारत के अत्यंत परंपरागत समाज में इसे हिकारत से देखा जाता है, और सरोगेट मदर की समाज में कोई इज़्ज़त नहीं है. इसलिए वे अपनी गर्भावस्था छिपाने की कोशिश करते हैं. कुछ आलोचकों का कहना है कि यह भारतीय संस्कृति के प्रतिकूल है. कुछ अन्य आलोचक इसे शोषण का ज़रिया समझते हैं और उनका कहना है कि इस क्षेत्र में एक पर्यटन उद्योग विकसित हो चुका है. महिला कार्यकर्ता प्रीति कटियार की राय में अमीर देशों की महिलाएं गरीब औरतों के पेट ख़रीद रही हैं. यह आर्थिक शोषण का एक नया रूप है.

संकलन: अना लेमान

संपादन: उज्ज्वल भट्टाचार्य