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पूर्वोत्तर में सबसे बड़ा हथियार बनी नाकेबंदी

प्रभाकर मणि तिवारी
१४ अक्टूबर २०१६

पूर्वोत्तर के विभिन्न संगठनों ने अपनी मांगों के समर्थन में असम को मणिपुर से जोड़ने वाले नेशनल हाइवे की बेमियादी नाकेबंदी का एलान किया है. इससे मणिपुर के साथ ही नगालैंड के लोगों को भारी समस्याओं का सामना करना पड़ेगा.

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Indien LKW Öl-Transport in Jammu
तस्वीर: picture-alliance/dpa/J. Singh

नाकेबंदी से इलाके के लोगों के जनजीवन पर भारी असर पड़ेगा क्योंकि देश के बाकी हिस्सों से नगालैंड को यही सड़क जोड़ती है. यह नाकेबंदी इलाके में आंदोलन करने वाले संगठनों का सबसे अहम हथियार बन गई है. मुद्दा चाहे जो भी हो, उसकी मार इलाके की जीवन रेखा कही जाने वाली इस सड़क पर ही पड़ती है. असम से यह सड़क नगालैंड होकर ही मणिपुर तक पहुंचती है. ऐसे में नगालैंड में होने वाली किसी भी नाकेबंदी का असर मणिपुर पर पड़ना लाजिमी है. अबकी दोनों राज्यों में एक साथ नाकेबंदी से आम लोगों का जीवन दूभर होने का अंदेशा है.

ताजा मामला

ताजा मामले में मणिपुर के दो संगठनों ने अलग-अलग मांगों के समर्थन में इस सड़क की नाकेबंदी की अपील की है. मणिपुर विश्वविद्यालय ने केंद्रीय विश्वविद्यालय का दर्जा मिलने के बाद विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) के निर्देश पर आदिवासी छात्रों के लिए आरक्षण का कोटा 31 से घटा कर 7.5 फीसदी कर दिया है. इसके विरोध में नगा व कूकी छात्र संगठनों ने राज्य के पांच जिलों में बेमियादी नाकेबंदी शुरू की है. वह आरक्षण का कोटा बहाल करने की मांग कर रहे हैं. दूसरी ओर, नगालैंड में रोंगमेई नगा युवा मोर्चा नामक संगठन ने हाइवे की बदहाली के विरोध में इसकी बेमियादी नाकेबंदी का एलान किया है.

नगा युवा मोर्चा की इस अपील का हाइवे पर वाहन चलाने वाले ड्राइवरों ने भी समर्थन किया है. उन ट्रक चालकों ने अपने संसाधनों से इस सड़क की मरम्मत की भी बात कही है. इसके साथ ही नगालैंड में पेट्रोल व डीजल में बड़े पैमाने पर होने वाली मिलावट के विरोध में 21 संगठनों को लेकर गठित समन्वय समिति ने भी 17 अक्तूबर से आंदोलन का एलान किया है.  समिति का आरोप है कि राज्य सरकार ने इस घोटाले की जांच सीबीआई को सौंपने से इंकार कर दिया है. ऐसे में उनके समक्ष आंदोलन के अलावा कोई विकल्प नहीं है. इस मिलावटी ईंधन का 80 फीसदी हिस्सा पड़ोसी मणिपुर में बेचा जाता है. विभिन्न संगठनों की नाकेबंदी की अपील को ध्यान में रखते हुए नगालैंड के पीडब्ल्यूडी मंत्री के. बीरेन ने इंजीनियरों के साथ राजधानी कोहिमा में आपात बैठक की थी. लेकिन उसका कोई ठोस नतीजा नहीं निकला है.

नई नहीं है नाकेबंदी

पर्वतीय राज्य मणिपुर को देश के बाकी हिस्सों से जोड़ने वाली सड़क को राज्य की जीवनरेखा कहा जाता है. खाने-पीने से लेकर रोजमर्रा की जरूरत की तमाम वस्तुएं इन सड़कों के जरिए ही राज्य में पहुंचती हैं. लेकिन अक्सर होने वाली नाकेबंदी के दबाव में यह जीवनरेखा लगातार कमजोर होती जा रही है,  आंदोलनकारियों का सबसे आसान हथियार समझी जाने वाली यह सड़क अक्सर उनके निशाने पर रही हैं. मुद्दा चाहे कोई भी हो, तमाम संगठन अक्सर नाकेबंदी के नाम पर इन सड़कों पर वाहनों की आवाजाही रोक कर उसे ठप कर देते हैं. बीते दिनों इनर लाइन परमिट समेत बीते साल विधानसभा में पारित तीन कथित आदिवासी-विरोधी विधेयकों के विरोध में पूर्वोत्तर राज्य मणिपुर में 10 दिनों की आर्थिक नाकेबंदी की वजह से राज्य में आम जनजीवन ठप हो गया था.

राज्य के विभिन्न संगठनों के लिए नाकेबंदी सबसे बड़े हथियार के तौर पर उभरी है. तमाम संगठन अपनी मांगों के समर्थन में नाकेबंदी की अपील कर देते हैं. पिछले कुछ वर्षों से मणिपुर को हर साल सालाना औसतन सौ दिनों से ज्यादा की नाकेबंदी झेलनी पड़ी है. वर्ष 2012 में यह नाकेबंदी सबसे ज्यादा 103 दिनों तक चली थी. इससे पहले वर्ष 2005 में अखिल नगा छात्र संघ ने राज्य में 52 दिनों तक आर्थिक नाकेबंदी की थी. उसके बाद वर्ष 2010 में जब सरकार ने अलगाववादी नगा नेता और नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नगालैंड के महासचिव टी.मुइवा के मणिपुर में प्रवेश पर पाबंदी लगाई थी तो नगा संगठनों ने 68 दिनों तक नाकेबंदी की थी.

सरकार उदासीन

मणिपुर सरकार ने पिछली नाकेबंदी के बाद इस पर पाबंदी लगाने के लिए एक कानून बनाने की बात कही थी. लेकिन तमाम दलों के अगले साल होने वाले विधानसभा चुनावों की तैयारियों में व्यस्त हो जाने की वजह से वह मामला भी खटाई में पड़ गया है. प्रमुख नगा संगठन यूनाइटेड नगा काउंसिल के प्रचार सचिव एस. मिलन कहते हैं कि जब तक नगा समस्या का स्थायी हल नहीं होता तब तक मणिपुर में शांति नहीं लौट सकती. इलाके के सामाजिक संगठनों का आरोप है कि राज्य और केंद्र सरकार इन राज्यों की समस्याओं पर कोई ध्यान नहीं देती. केंद्र की निगाह में तो यह इलाका दशकों से उपेक्षा का शिकार है. लेकिन राज्य सरकारें भी किसी तरह अपनी कुर्सी बचाने में जुटी रहती हैं. उनको आम लोगों के हितों का कोई ख्याल नहीं है.

राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि सरकार की उदासीनता के विरोध में ही कोई भी संगठन कभी भी नाकेबंदी की अपील कर देता है और कोई कार्रवाई करने की बजाय सरकार हाथ पर हाथ धरे बैठी रहती है. ऐसे में आम लोग नाकेबंदी से पैदा होने वाली समस्याओं का सामना करने पर मजबूर हैं.