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पूर्व घोषणा के साथ लुढ़का शेयर बाजार

२५ अगस्त २०१५

कुछ दिनों से पूरी दुनिया शेयरों के दाम लुढ़क रहे हैं. क्या चीन से नए वित्तीय संकट की शुरुआत हो रही है? आंकड़े इसकी पुष्टि नहीं करते. डॉयचे वेले के हेनरिक बोएमे का कहना है कि दरअसल गर्म बाजार धीरे धीरे सामान्य हो रहा है.

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तस्वीर: picture-alliance/dpa/Rumpenhorst

पिछले दिनों चक्कर लाने वाली जिस ऊंचाई पर शेयर की कीमतें चल रही थीं, उस हिसाब से बाजार में मौजूदा पतन कोई आश्चर्य नहीं है. निश्चित तौर पर बहुत सी बुरी बातें हैं जिनका सामना वित्तीय बाजारों को करना पड़ा है, खासकर चीन में. जब दुनिया के दूसरे सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था में इस तरह का भूचाल आता है तो यह स्वाभाविक रूप से निवेशकों को नर्वस करेगा. लेकिन यह अकेला कारण नहीं है. उम्मीद की किरण समझे जाने वाले दूसरे विकासमान देश भी चिंता पैदा कर रहे हैं. मसलन रूस, जो पश्चिमी प्रतिबंधों और अपनी समस्याओं के कारण कमजोर हुआ है. या फिर ब्राजील जो रूस की तरह कच्चे माल की बिक्री पर ध्यान देता रहा है और अब कीमतों के गिरने के कारण मंदी में चला गया है.

जाएं तो जाएं कहां

बहुत आसान है, वित्तीय उथल पुथल की जिम्मेदारी उभरते देशों पर थोप देना. शेयर बाजारों में पिछले सात सालों से चल रहा उफान दरअसल दुनिया भर के रिजर्व बैंकों की सब्सिडी से चल रहा है. अमेरिका में लेहमन ब्रदर्स के दिवालिया होने के बाद से अमेरिकी और यूरोपीय केंद्रीय बैंक ब्याज दर को जीरो के करीब लाकर बाजार में अरबों डॉलर झोंक रहे हैं. लेकिन यह धन आखिर कहां जाए? इसे ऐसी जगह लगाना होगा जहां कुछ फायदे की गुंजाइश हो, खासकर तब जब पेंशन फंड और बीमा कंपनियां रिटर्न का अपना वादा पूरा करना चाहें.

मतलब यह कि मुख्य रूप से शेयर में निवेश किया जाए. लेकिन शेयर या बॉन्ड के हर सौदे में यह वाक्य लिखा होता है: शेयर के भाव में उतार चढ़ाव होता है, जिसके परिणामस्वरूप पूरा नुकसान हो सकता है. इसके अलावा एक और बात है. निवेशकों की पसंदीदा कंपनियां अपने भारी मुनाफे का इस्तेमाल मुख्य रूप से नए निवेश में नहीं करती, बल्कि अच्छे रिटर्न के साथ अपने शेयरधारियों को खुश करती हैं.

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तस्वीर: DW

ऐसा भी नहीं है कि यह पिछले सालों का पहला क्रैश हो. विशेषज्ञों ने पहले ही कह दिया था कि बाजार बहुत ही उतार चढ़ाव वाला होगा. पिछले साल जर्मन शेयर सूचकांक अर्थव्यवस्था की चिंताओं के कारण लुढ़क कर 8400 अंकों पर पहुंच गया था. वे बाद में गलत साबित हुईं. उसके बाद आधे साल के अंदर सूचकांक 4000 अंक चढ़ गया. ऐसे मौकों पर कोई वजह नहीं पूछता लेकिन जब भाव गिरने लगते हैं तो लोग नर्वस हो जाते हैं और कारण पूछने लगते हैं.

ऐसे मौकों पर आंकड़ों पर नजर डालना जरूरी होता है. निर्यात देश जर्मनी अपने सामान मुख्य रूप से यूरोप में बेचता है. सिर्फ 7 प्रतिशत चीन जाता है. हो सकता है कि चीन की समस्या ऑटोमोबाइल जैसी कुछ जर्मन कंपनियों के अधिकारियों की रात की नींद उड़ा रही हो, लेकिन सभी चिंतित नहीं हैं. दूसरा शांत करने वाला कारक अमेरिकी अर्थव्यवस्था है जो विकास के राह पर है. इसके अलावा तेल और तांबे की कीमतें अत्यंत सुविधाजनक हैं. इससे सप्लायर देशों में भले ही चिंता हो खरीदार देशों के लिए यह विकास को प्रोत्साहन है.

अब बहुत कुछ अमेरिकी केंद्रीय बैंक फेड की प्रमुख जनेट येलेन के हाथों में है. उनका सिर्फ यह कहना कि ब्याज दर में फिर से वृद्धि होगी, विकासशील देशों में डर पैदा कर रहा है. कुछ समय से निवेशक इन देशों से पूंजी वापस निकाल रहे हैं क्योंकि उन्हें अमेरिका में ज्यादा मुनाफा होने की उम्मीद है. यह एक चक्रव्यूह है, लेकिन कभी न कभी संकट से निबटने के लिए पूंजी की बाढ़ और जीरो ब्याज दर की दवा देने की प्रक्रिया रोकनी होगी. समस्या यह है कि यदि चीन का संकट फैलता है और विश्व अर्थव्यवस्था को अपनी चपेट में लेता है तो पश्चिम के पास उससे निबटने का कोई नुस्खा नहीं है. लेहमन क्रैश का असर अभी भी बना हुआ है.

हेनरिक बोएमे/एमजे