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पैसे नहीं प्रबंधन की मारी नदियां

१६ अगस्त २०१३

शिखर कुमार जर्मनी के आखेन यूनिवर्सिटी में हाइड्रोजिओलॉजी में शोध छात्र हैं. भारत की गंगा नदी में प्रदूषण पर वह काम कर रहे हैं.उनसे बातचीत में जानेंगे क्या है ये प्रोजेक्ट.

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तस्वीर: DW

मिजोरम यूनिवर्सिटी से भूगर्भशास्त्र यानी जिओलॉजी में शिखर कुमार ने एमएससी की. इस दौरान एमएससी की थीसिस उन्होंने असम और मिजोरम के पानी में संखिया प्रदूषण की जांच की थी. बांग्लादेश, सहित पश्चिम बंगाल के कुछ इलाकों और बिहार के कुछ हिस्सों में पानी में आर्सेनिक यानी संखिया की मात्रा बहुत ज्यादा है. उन्होंने सैंपल्स में पाया कि मिजोरम के पानी में तो आर्सेनिक नहीं है लेकिन असम के पानी में आर्सेनिक की मात्रा विश्व स्वास्थ्य संगठन के तय किए हुए मानकों से ज्यादा है. उनसे बातचीत के कुछ अंश...

डॉयचे वेलेः आखेन यूनिवर्सिटी में आप अभी किस प्रोजेक्ट पर काम कर रहे हैं?

शिखर कुमारः जर्मन एकेडमिक एक्सचेंज प्रोग्राम डीएएडी के तहत मेरा एक प्रोजेक्ट चल रहा है. जिसका नाम है ए न्यू पैसेज टू इंडिया. इसके तहत डीएएडी भारत के दो मुख्य शहरों पर काम कर रहा है, वाराणसी और हैदराबाद. इसमें चार पीएचडी छात्र हैं और कई मास्टर्स के छात्र हैं जो भारत जाते हैं और भारत से भी कई जर्मनी आते हैं.

डॉयचे वेलेः तो इन दो शहरों को क्या इनकी भौगोलिक स्थिति के कारण चुना गया है?

शिखर कुमारः नहीं, पहले चार शहरों की योजना थी. लेकिन फिर हैदराबाद और वाराणसी को चुना गया क्योंकि यहां शहरीकरण बहुत तेजी से बढ़ रहा है. हैदराबाद बहुत तेजी से बढ़ रहा है और वाराणसी आकार में हैदराबाद से बहुत छोटा है लेकिन वहां भी लोगों की संख्या बहुत तेजी से बढ़ रही है. हैदराबाद में तो जमीन में पत्थर हैं और वहां का पानी इस शहरीकरण के कारण बहुत तेजी से कम हो रहा है. वहीं वाराणसी में ये समस्या नहीं है, वहां जमीन में पानी काफी है. लेकिन शहरीकरण का दबाव सीधे गंगा नदी पर पड़ रहा है और वह लगातार प्रदूषित हो रही है.

डॉयचे वेलेः गंगा नदी में प्रदूषण रोकने के लिए न जाने कितने प्रोजेक्ट चल रहे हैं लेकिन जितना फायदा होना चाहिए उतना हो नहीं पाया. क्या वजह है इसके पीछे?

शिखर कुमारः प्रबंधन की कमी इसका इकलौता कारण है. सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट जैसी योजनाओं के लिए जब पैसा स्वीकृत होता है तो वह सही समय पर इस्तेमाल नहीं हो पाता. कुल मिला कर फिर वह काम पूरा हो ही नहीं पाता. वाराणसी के 100 साल पुराने सीवेज सिस्टम को बदला जा रहा है क्योंकि इसमें बहुत लीक हो रहा था, तो नया सिस्टम बिछाने की तैयारी में महीनों पहले सड़क पर पाइप रख दिए जाते हैं. बारिश में वो खराब होती रहती हैं तो बिछने से पहले ही वह पुरानी हो जाती है. इन छोटी छोटी मुश्किलों को हल करना जरूरी है. पैसे की कमी नहीं है, प्रबंधन की है.

Shikhar Kumar
शिखर कुमार, हाइड्रोजियोलॉजी में शोध छात्र, आखेन यूनिवर्सिटीतस्वीर: DW

डॉयचे वेलेः आपकी मास्टर्स रिसर्च पर लौटते हैं कि मिजोरम से आसाम के पानी में संखिया के बढ़ने के कारण क्या है.

शिखर कुमारः असम और बांग्लादेश की भूगर्भीय स्थिति में बहुत ज्यादा फर्क नहीं है. मिजोरम पहाड़ी इलाका है जबकि आसाम में पहाड़ खत्म हो जाते हैं. वहां और जांच की जरूरत है. बहुत डिटेल में कई जगहों से सैंपल लेना जरूरी है ताकि पता चल जाए कहां आर्सेनिक ज्यादा है और कहां नहीं. तब हम एकदम सही कारणों का पता लगा सकेंगे.

डॉयचे वेलेः जर्मनी आए आपको ढाई साल के करीब हो गए हैं. यहां आपको सबसे अच्छा क्या लगता है?

शिखर कुमारः गर्मियों के मौसम में यहां रहना बहुत अच्छा लगता है. हालांकि मुझे कई बार गर्मी के मौसम में वाराणसी जाना पड़ता है, सैंपल कलेक्शन के लिए. लेकिन कुल मिला कर देखा जाए तो यहां मौके बहुत अच्छे हैं, खासकर पढ़ाई और रिसर्च के लिए.

डॉयचे वेलेः पढ़ाई के क्षेत्र में आपको दोनों देशों में क्या फर्क लगता है?

शिखर कुमारः सुविधाओं को अगर छोड़ दिया जाए तो काम तो सभी उतना ही दिल लगाकर करते हैं. रिसर्च दोनों जगह वही है. इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि जर्मनी में सुविधाएं काफी हैं लैब भी बहुत अच्छी हैं. लेकिन यह इंडिया में कभी भी ठीक किया जा सकता है.

डॉयचे वेलेः आपकी पीएचडी के बाद क्या योजनाएं हैं?

शिखर कुमारः मैं बाद में भारत में ही काम करना चाहूंगा और चाहूंगा कि अपना टैलेंट मैं भारत को दूं. पोस्ट डॉक्टरल रिसर्च का अगर मौका मिलता है तो मैं बिलकुल यहां कोशिश करूंगा लेकिन नौकरी मैं भारत में ही करना चाहता हूं.

इंटरव्यूः आभा मोंढे

संपादनः मानसी गोपालकृष्णन

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