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प्लास्टिक से बनेंगी भारत की सस्ती, सुरक्षित, टिकाउ सड़कें?

२८ अक्टूबर २०१७

भारत को अपने यहां की सड़कें सुरक्षित, सस्ती और देसी तकनीक से बनाने के लिए प्लास्टिक कचरे का इस्तेमाल करना चाहिए. विशेषज्ञों का मानना है कि इसमें भारी निवेश करने की जरूरत है. क्या सचमुच प्लास्टिक से सड़क बन सकती है?

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Indien Bangalore - Symbolbild Strassenarbeit
तस्वीर: Getty Images/AFP/D. Sarkar

भारत सड़कों के नेटवर्क की विशालता के मामले में दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा देश है. इसके साथ ही यहां सड़क हादसों में होने वाली मौत का आंकड़ा भी काफी बड़ा है. भारत में हर साल तकरीबन 5 लाख सड़क हादसे होते हैं जिनमें डेढ़ लाख लोगों की जान जाती है. इन हादसों में करीब दस फीसदी ऐसे हैं जो खराब सड़कों या फिर सड़कों में गड्ढे होने के कारण होती हैं.

Indien Kampagne für Sicherheit im Sraßenverkehr
तस्वीर: DW/P. Samanta

भारत सरकार ने 6900 अरब रुपये की लागत से करीब 83,677 किलोमीटर लंबी सड़क बनाने की योजना का एलान किया. यह सड़कें अगले पांच सालो में बनाई जाएंगी. विशेषज्ञों का कहना है कि भारत को प्लास्टिक कचरे का इस्तेमाल सड़क बनाने में करना चाहिए. इस तकनीक का परीक्षण किया जा चुका है और यह सस्ती होने के साथ ही ज्यादा मजबूत भी है और इस लिहाज से ज्यादा सुरक्षित भी. शहरी बुनियादी ढांचे पर सरकारी कमेटी की पूर्व प्रमुख इशर जज आहलूवालिया कहती हैं, "प्लास्टिक की सड़कें ना सिर्फ मानसून के मौसम में भी टिकी रहेंगी बल्कि रिसाइकिल ना होने वाली प्लास्टिक को खपाने के लिहाज से भी अच्छी होंगी."

ठोस कचरे के प्रबंधन की विशेषज्ञ अलमित्रा पटेल ने बताया कि सिंगल लेन वाली एक किलोमीटर लंबी सड़क बनाने में करीब एक टन प्लास्टिक कचरा लगता है. प्लास्टिक इस सड़क की उम्र दो गुना या तीन गुना तक बढ़ा सकता है. भारत हर दिन करीब 15000 टन प्लास्टिक कचरा पैदा करता है जिसमें से करीब 9000 टन प्लास्टिक को रिसाइकिल कर लिया जाता है. बाकी हिस्सा लैंडफिल एरिया और नालियों में बहता रहता है. नालियों में बहने वाला प्लास्टिक अकसर उन्हें जाम कर देता है जिनसे बीते सालों में कई बार शहरों में भयानक बाढ़ की स्थिति पैदा हो गयी.

Indien Himalaja Spiti Valley
तस्वीर: picture-alliance/AP Photo/T. Cytrynowicz

मदुरै के त्यागराजर कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग में केमिस्ट्री के प्रोफेसर राजागोपालन वासुदेवन ने एक तकनीक विकसित की है. इसमें प्लास्टिक कचरे के छोटे छोटे टुकड़े कर उन्हें गर्म डामर में मिलाया जाता है. इस मिश्रण को पत्थरों पर डाला जाता है. प्लास्टिक कचरे में चॉकलेट के रैपर से लेकर शॉपिंग बैग तक शामिल हैं और यह मिश्रण डालने के बाद डामर की जरूरी मात्रा को 10 फीसदी तक कम कर सकता है. वासुदेवन ने 2002 में इस तकनीक को विकसित किया और कॉलेज में प्लास्टिक की सड़क बनायी गयी. इसके बाद वो राज्य के अधिकारियों तक गये. वासुदेवन ने समाचार एजेंसी रॉयटर्स से बातचीत में कहा, "हम सड़क बनाने पर बहुत पैसा खर्च करते हैं, बावजूद इसके बहुत जल्दी ही इसमें गड्ढे बन जाते हैं और इनकी रिपेयरिंग करनी पड़ती है." वासुदेवन ने बताया कि कॉलेज में बनाई सड़क अब भी वैसी ही है, ना तो उसमें गड्ढे बने ना ही दरारें उभरीं. उन्होंने कहा, "यह इस सड़क की मजबूती और टिकाऊ होने का सबूत है. इसके साथ ही इसमें प्लास्टिक कचरे का इस्तेमाल हो गया जो वैसे सड़को और नदियों में बिखरा रहता है."

तमिलनाडु समेत कम से कम 11 राज्यों ने प्लास्टिक कचरे का इस्तेमाल कर करीब 1 लाख किलोमीटर लंबी सड़क बनाई है. एक छात्र तो इस तकनीक को भूटान लेकर भी गया. 2015 में भारत सरकार ने देश के ज्यादातर हाइवे में प्लास्टिक कचरे के इस्तेमाल को जरूरी कर दिया. हालांकि अब भी कुछ राज्य इस तकनीक के इस्तेमाल में धीमे हैं. उनका कहना है कि प्लास्टिक की छंटाई करने के लिए बड़े ठेकेदारों की जरूरत पड़ती है. हालांकि वासुदेवन कहते हैं कि बुनियादी ढांचे के लिए नई प्रतिबद्धता ने इस तकनीक के इस्तेमाल के लिए थोड़ा दबाव बनाया है. वासुदेवन कहते हैं, "हम प्लास्टिक कचरा तो पैदा कर रहे हैं और भविष्य के लिए सड़क भी बनाने जा रहे हैं तो फिर क्यों ना ऐसे तरीकों का इस्तेमाल करें जिसमें प्लास्टिक कचरे से छुटकारा भी मिल जाए और सस्ती, सुरक्षित, टिकाऊ सड़कें भी बन जायें."

एनआर/एमजे (रॉयटर्स)