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फैशन के मारे, डांडी बेचारे

२५ फ़रवरी २०१४

कांगो में दशकों पहले शुरू हुए हाई-फाई फैशन के चलन को मानने वाले आज भी बहुत हैं. लेकिन साधनों के अभाव के कारण अब मंहगे ब्रांडों की जगह ले रही हैं उनकी खुद की रचनाएं और डिजाइन.

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DR Kongo Mode Show auf dem Friedhof Gombe in Kinshasa
तस्वीर: Junior D. Kannah/AFP/Getty Images

इनके कपड़े कभी कभी भड़काऊ लग सकते हैं लेकिन डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ कांगो के आधुनिक डांडी खास दिखने के लिए खुद को कागज से सजाने से भी नहीं चूकेंगे. सेड्रिक म्बेंगी कहते हैं, "मुझे जापानी और कई दूसरे डिजाइनरों के कपड़े बहुत अच्छे लगते हैं लेकिन मैं कागज पहनना ज्यादा पसंद करता हूं." 23 साल के म्बेंगी 'साप्योर' नाम की एक सभ्यता को मानते हैं.

म्बेंगी को 2004 में अचानक ख्याल आया कि कागज को भी कपड़ों की तरह पहनना चाहिए. और वह उस कागज से कपड़े बनाने में लग गए जिसका इस्तेमाल आम तौर पर मांस, मछली या मूंगफलियों को लपेटने में किया जाता है. 'साप्योर' के फैशन शो के अंतिम राउंड में वह अपने कागज के बने कपड़ों को फाड़ देने से भी गुरेज नहीं करते.

DR Kongo Mode Show auf dem Friedhof Gombe in Kinshasa
साप्योर के खास फैशन शो आयोजित किए जाते हैंतस्वीर: Junior D. Kannah/AFP/Getty Images

'साप्योर' का मतलब होता है वे शालीन लोग जो फैशन के मानक तय करते हैं. इस परिकल्पना की शुरूआत 1960 में कांगो गणराज्य की राजधानी ब्राजाविल में हुई. लेकिन अफ्रीकी डांडी संस्कृति की जड़ें औपनिवेशिक काल से आई दिखती हैं, जब स्थानीय लोगों ने पहली बार वहां शासन करने वाले यूरोपीय लोगों के कपड़ों और रहन सहन को करीब से देखा. पहले 'साप्योर' का मकसद हुआ करता था दुनिया भर के जाने माने डिजाइनरों के कपड़े, जूते, गहने वगैरह का प्रदर्शन करना. वे लुई विटॉं, वेस्टन, डोल्चे एंड गबाना जैसे बेहतरीन और महंगे ब्रांड की चीजें पहन कर दिखावा करने में यकीन रखते थे. लेकिन डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ कांगो के डांडी उनसे कहीं ज्यादा विचित्र हैं.

'कपड़ों में भी होती है जान'

डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ कांगो की राजधानी किन्शासा की एक करोड़ की आबादी का गुजारा भी कठिनाई से होता है. लेकिन यहां के हजारों 'साप्योर' अपने फैशनेबल कपड़ों और बाकी चीजों को पहन काफी अकड़ के साथ चलते हैं. ये ज्यादातर वे लोग हैं जो कांगो से आए प्रवासी हैं. लेकिन कई प्रवासियों को भी अब ये शौक पालना मुश्किल पड़ रहा है. किन्शासा में एक कला इतिहासकार की हैसियत से काम कर रही लिडिया सांबाई बताती हैं कि अब पहले के जैसी चीजें जुटाना बहुत मुश्किल हो गया है. सांबाई कहती हैं, "जब 'साप्योर' को लगा कि अब पहले जैसी जीवन शैली नहीं चल पाएगी तब उन्होंने बहुत किफायत से ब्रांडेड चीजों की खरीदारी करना शुरु किया और साथ में खुद के बनाए हुए कपड़े भी पहनने लगे."

कुछ ने थोड़े सस्ते ब्रांडों का रूख किया तो म्बेंगी जैसे कुछ 'साप्योर' ने अपनी ही फैशन लाइन शुरु कर दी. म्बेंगी के कागज के बने कपड़ों के अलावा वापवा कुमेसो जैसे शौकीन भी हैं जिन्होंने 2009 में 'काढ़ीतोजा' नाम के फैशन की शुरूआत की. कुमेसो कहते हैं, "हमारे महाद्वीप के जानवर ही मेरी प्रेरणा हैं." कुमेसो अपनी रचनाओं में लीनेन या नए ऊन जैसी चीजों का इस्तेमाल करते हैं.

DR Kongo Mode Show auf dem Friedhof Gombe in Kinshasa
साधनों की कमी फैशन के शौक को खत्म नहीं कर पाई हैतस्वीर: Junior D. Kannah/AFP/Getty Images

हर साल 10 फरवरी को 'साप्योर' इस ट्रेंड के जनक कलाकार स्टेर्वोस नियार्कोस की पुण्यतिथि मनाते हैं. इस दिन दर्जनों 'साप्योर' अपने खास अंदाज में नाच गा कर उत्तरी किन्शासा की एक कब्रगाह में अपने हीरो को याद करते हैं. वहीं कुछ ऐसे भी हैं जिन्हें लगता है कि डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ कांगो के इन 'साप्योर' की रचनाओं में क्वालिटी का अभाव हैं.

आरआर/एएम (एएफपी)

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